डैडी की बेटी

बम्बई की खूबसूरत शाम जुलाई का आखिरी हफ्ता, हल्की-हल्की बारिश, चारो तरफ धुंध ही धुंध... ऐसी खूबसूरत शाम में मेरिन ड्राइव और भी खूबसूरत दिख रहा था। सड़क के दोनों ओर लगे खम्बों की रोशनी पानी में पड़ती तो एक सजीली सुन्दर युवती की नई चुनरी पर असंख्य मोतियों की बौछार मालूम होती। एक ओर नीला समुद्र पूरे जोर से ठाठे मारता तो दूसरी ओर सड़क पर कभी किसी बग्घी या कार की आवाज बरसते पानी में एक अजीब सा संगीत पैदा करती। सुधा इस मैरिन ड्राइव पर हौले-होले कदम बढ़ती चली जा रही थी। सफेद साड़ी बदन से चिपकी, सांवली-सलोनी सुन्दर सी देह, हाथ में बरसाती लिए आँखें बड़ी-बड़ी बेहद सुन्दर जो दूर कुछ खोज रही थी, कभी-कभी किसी बस या कार के छींटे उसके बदन पर पड़ते पर वह बगैर चैंके सीधी चली जा रही थी। हर देखने वाला यही सोचता कि इतना खूबसूरत सुडौल सा बदन, बरसाती रात में कुछ ढूढ़ती हुई हिरनी सी आँखें... जरूर पागल होगी, जिसे अपना जरा भी ख्याल नहीं कि मैं अपनी इस सादगी से सारे रास्ते कितनों पर बिजली गिराती जा रही हूँ। दरबान कोठी का बड़ा सा गेट खोलते ही सुधा की ओर हैरानगी के साथ दौड़ा... मिस्सी बाबा! यह क्या? सारा जिस्म भीग गया? अरे! पैदल, क्या आज साब की गाड़ी छोड़ने नहीं आया? हमको फोन कर दिया होता, मेम साहब ने गाड़ी भेज दिया होता। पर सुधा से किसी प्रकार का जवाब न पा उसे एकाएक लगा कि वो बहुत कुछ बोल गया है उसके सारे के सारे सवाल बेगाने से बनकर फिजा से गुम होकर के रह गये है, सुधा ने एक पल के लिए भी उसकी ओर नहीं देखा और न ही उसे हमेशा की तरह ज्यादा बोलने पर टोका, बल्कि लाॅन और हाॅल को पार करती हुई अपने कमरे की ओर चल दी। जैसे ही सीढ़ी पर पांव रखा कि मम्मी की आवाज सुनाई दी, सुधा, मैं नाईट शूटिंग पर जा रही हूँ, सुबह लौटूंगी। डिनर तुम अकेले ही ले लेना। सुधा को यह आवाज दूर कहीं क्षितिज से आती सुनाई दी और मम्मी की हाईहील्स की आवाज पूरी कोठी में एक बेसुरी सी टक-टक छोड़ती हवा में लीन हो गई। फिर कार के स्टार्ट होने की आवाज ओर उसके बाद एक लम्बा सन्नाटा। एक ठंडी सी सांस अनजाने में सुधा के मुंह से निकली ओर वह धीरे-धीरे नपे तुले कदम बढ़ाती अपने कमरे में पहुँची हाथ में रेनकोट एक तरफ डाल, कटे वृक्ष की तरह बिस्तर में धंस गई। दीवार पर लगी बड़ी सी क्लाॅक ने शायद एक लम्बा सा बेल बजाया वह अनमनी सी उठी, बदन के कपड़ों की ओर एकाएक ध्यान गया वो सूख चुके थे। टेबल पर रखा खाना और दूध इस बात की गवाही दे रह थे कि रधिया कमरे में दो बार आ चुकी है। रिमझिम के इस भीगे मौसम में भी अपना गला सूखता सा महसूस हुआं अनजानी सी उठी मशीन से शीशे के जार से पानी उड़ले एक ही सांस में गले के नीचे उतार काॅरीडोर की खिड़की खोल इ्रजीचेयर पर खुद को टिका लिया। सामने सुनसान सी गली में कहीं दूर से बूढ़े गोरखे की 'सोना न जागते रहना।' की क्षीण सी आवाज सुनाई दे जाती। कभी-कभी शायद इस कांपती आवाज में उसके बुढ़ापे का असर था या फिर निरन्तर बरसती बूंदों के शोर का, जो रात की इस एकान्त फ़िजा में भी पल भर को थमने का नाम नहीं ले रही थी। बल्कि जो रह-रहकर स्वयं में ही एक बड़ा डरावना महौल पैदा कर रही थी, शरीर भारी सा महसूस हुआ। ड्रेसिंग टेबिल के तीनों शीशों में पड़ रही उसकी परछाई का एक-एक अक्स उसका यहाँ भी पीछा करता हुआ सा लगा। 'सोना न जागते रहना।' मुठ्ठियाँ गुस्से में भिंच गई। अनजाने में ही आँखों के कोर भीगते से महसूस हुए। वह करे भी तो क्या? क्या मर जाये? पर क्यों? करेक्टर नहीं रहा? करेक्टर की बात पर एकाएक आॅफिस में हुए हादसे की बात उसके दिमाग में घूमने लगी। सुबह सुधा बहुत ही खुश थी, उसकी बचपन की फ्रेंड गीता का प्यार भरा लेटर स्टेट्स से आया था, सोचती थी वह भी आॅफिस से कुछ दिन की छृट्टी लेकर धूम आयेगी स्टेट्स। बाॅस पापा के पुराने मित्र थे। उनके बार-बार आग्रह पर ही उसने जाॅब एक्सेप्ट की थी। सारा-सारा दिन खाली बैठना उसे खुद को अच्छा नहीं लगता था। अंकल जब भी मिलते यही शिकायत करते कि 'सुधा तुमने बिजनेस मेनेजमेन्ट का कोर्स करके शर्मा की इच्छा को पूरा तो किया। इसमें कोई शक नहीं कि आज शर्मा होता तो बड़ी शान से छाती ठोक के कहता, देखो है न अपने डैडी की बेटी और बस अब मैं कुछ ही दिनों में कोई छोटा सा बिजनेस सुधा के मैनेजमेंट में शुरू कर दूंगा।' अब उसने जाॅब स्वीकार कर ली। घर में कोई ऐसा न था जो डैडी की तरह उसकी भावनाओं को समझता, न कोई बहन न भाई। मम्मी, जिन्हें डैडी के वक्त अपने सोशल सर्कल से क्लब से और तरह-तरह की सिटिंग से ही फुरसत नहीं मिलती थी और जिसकी वजह से वह डैडी के नजदीक होती गयी थी, दिन-ब-दिन हीरोइन बनने की लालसा को क्लब और मीटिंगों में गुजर स्वयं को डैडी की कम बोलने की आदत और सिर्फ आँख भर के एक बार देखने की हैबिट से स्वयं में कहीं दूर तक डर महसूस करती थी, और जिसे डैडी को आदर देने का रूप दे स्वयं पर कंट्रोल करती रही। पर डैडी के एकाएक न रहने से वो स्वयं की दबी हुई प्रबल इच्छा की पूर्ति करने को न रोक सकी। अब उम्र के तक़ाजे से हीरोइन तो न बन सकी। पर स्वयं को एक करैक्टर आर्टिस्ट समझ कर रात-रात भी गायब रहने लगी। इस गायब रहने में प्रोड्यूसर अंकल का भी बहुत हाथ था। मम्मी कुछ तो एडवांस थीं ही, पर अंकल की शह पर खुलकर खेलने लगी। मम्मी ने बहुत चाहा था कि सुधा भी उनकी राह में साथ दे, पर वो डैडी की बेटी थी न, सो न वो हीरोइन ही बन सकी, न करेक्टर आर्टिस्ट ही। हाँ मम्मी को बेडरूम में ट्रेनिंग दे देकर अंकल ने करेक्टर आर्टिस्ट तो बना ही दिया, यह इस कालोनी का बच्चा-बच्चा जानता है और हमेशा अपने परायों ने उसके प्रोड्यूसर अंकल की दरियादिली का फायदा न उठा पाने पर भोंदू और अनलकी कहा है, तथा मम्मी को लक्की और स्मार्ट की संज्ञा दी। पापा मम्मी की इस स्मार्टनेस की दौड़ में साथ न दे सके थे, थक गये थे। बार-बार मम्मी से बहुत पीछे छूट जाते थे, अन्दर ही अन्दर अपनी कमजोरी को दबाते-बचाते रातों को ठीक से सो भी नहीं पाते थे, पिल्स खानी शुरू कर दी थी। और फिर एक दिन मम्मी जब रात को अंकल की पाटी्र से देर रात तक आई नहीं थीं तो परायों ने कहा था... शर्मा बेचारा अनलकी था जो अपनी वाइफ की दिन दूनी रात चैगुनी की प्रोग्रेस न देख सका। आज आफिस में अंकल ने उसे भी लक्की बना दिया था ठीक मम्मी की तरह। बल्कि उससे भी बढ़कर अंकल ने उसे अगली फिल्म के लिए एक बहुत बड़े हीरो के अपोजिट हीरोइन बना दिया था, 'सुधा डार्लिंग मैं तुम्हारी वो बम्पर पब्लिकसिटी करूँगा कि तुम्हे रातों-रात आसमान पर चढ़ा दूँगा। सच माई डार्लिन्ग आने वाले कल दुनिया की हर जुबां पर तुम्हारे ही चर्चे होंगे, यू आर द लक्की ऐक्ट गर्ल।' और मम्मी अब वो बम्पर न्यूज सुनने अंकल के पास गई हैं। उनको मालूम पड़ेगा कि आने वाले कल को दुनिया में हर एक की जुबां पर यही एक लफ़्ज होगा कि 'सुधा इज मोस्ट लक्की ऐक्ट गर्ल आन द अर्थ' और कल की प्रसिद्धि के सूरज की चमक का ठीक से सामना करने के लिए उसका एक भरपूर नींद सो लेना ठीक होगा। उसने ढेर सारी पिल्स पहली और आखिरी बार खा ली, क्योंकि वो डैडी की बेटी थी।'


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