डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का युग स्वाधीनता और राष्ट्रवाद लिए के सदैव स्मरण किया जायेगा

मनुष्य के लिए जीवन-मृत्यु की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, अंतोगत्वा मृत्यु सुनिश्चित है। मैं बालपन से अपने परिजनों से सुनता आया हूं कि जन्म-जनमान्तर के उपरांत मनुष्य योनि में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त होता है। वो अपने जन्मकाल में विविध तरह के कार्य करता है, स्वाभाविक है कि उसके सौ प्रतिशत कार्यो से सभी सहमत नहीं हो पायें। सत्य-असत्य, पाप-पुण्य, और सदगुण-दुर्गुण सभी में समाहित है। कभी-कभी व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा के कारण मनुष्य ऐसा कार्य कर जाता है, वहा राष्ट्र और समाज के लिए अहितकारी होता है। दूसरी ओर महान व्यक्तित्व वाले लोग कुछ ऐसा कर जाते है, जो समाज और राष्ट्र के लिए उत्कृष्ट प्रेरणदायक होता है भावी पीढ़ी को प्रगति के पथ की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देता रहता है। भारत का गौरवशाली इतिहास है, यहां की सभ्यता और संस्कृति का उदाहरण विश्व समाज देता है, ऐसे महान देश में एक ऐसा राष्ट्रवादी, महामनीषी, युगपुरूष हुआ जिसने भारत की एकता और अखण्डता के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। राष्ट्रवादी चितंक, संसदीय प्रणाली के ज्ञाता भारतीय संस्कृति को सर्वोच्च प्राथमिकता देने वाले, ओजस्वी वक्ता भारत के महान विभूति परम् श्रद्धेय डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई, 1901 को कोलकाता (कलकत्ता) के अत्यन्त प्रतिष्ठित परिवार पिता आशुतोष मुखर्जी व माता योगमाया के घर जन्में डा. मुखर्जी को विरासत में पिता से उच्च श्रेणी के संस्कार मिले।
डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के पिता सर आशुतोष मुखर्जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे एवं शिक्षाविद् के रूप में विख्यात थे। पिता आशुतोष मुखर्जी ने डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को सुयोग्य बनाकर मानव कल्याण के लिए सफल नागरिक बनाने के उद्देश्य से प्रेरित होकर मित्तर इंस्टीट्यूट की स्थापना कराई। एक ऐसा इंस्टीट्यूट जहां बालक को शिक्षा के अतिरिक्त नैतिक ज्ञान, वैचारिक चेतना आदि की शिक्षा अर्जित हो सके। डा. मुखर्जी ने 1917 में मैट्रिक, 1919 इंटर में सर्वप्रथम छात्र होने का गौरव प्राप्त किया। 1921 में बीए की उपाधि प्राप्त की। डा. मुखर्जी का अंग्रेजी भाषा पर प्रभावशाली अधिपत्य था, परन्तु मातृभाषा के प्रति श्रद्धा होने के कारण बंगला में एम.ए. किया। डा. मुखर्जी अंगे्रजी और अंगे्रज को अतिथि के समान ही सम्मान देते थे। लाॅ की उपाधि अर्जित करने के पश्चात् वे विदेश चले गये और 1927 में स्वदेश लौटे और वकालत शुरू किया। अपने पिता का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी अल्पायु में ही विद्याध्ययन के क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलतायें अर्जित कर ली थीं। 33 वर्ष की अल्पायु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने। इस पद पर नियुक्ति पाने वाले वे सबसे कम आयु के कुलपति थे। एक विचारक तथा प्रखर शिक्षाविद् के रूप में उनकी उपलब्धि तथा ख्याति देश-विदेशों में निरन्तर बढ़ती गयी।
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने स्वेच्छा से अलख जगाने के उदेदश्य से राजनीति में प्रवेश किया। डाॅ. मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धान्तवादी थे। डाॅ. मुखर्जी बंगाल सरकार में वे वित्तमन्त्री बने। कुछ समय पश्चात समय डाॅ. मुखर्जी सावरकर जी के राष्ट्रवाद के प्रति आकर्षित हुए और हिन्दू महासभा में सम्मिलित हुये।
मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल का वातावरण दूषित हो रहा था। वहां साम्प्रदायिक विभाजन की स्थिति बनती जा रही थी। साम्प्रदायिक लोगों को ब्रिटिश सरकार प्रोत्साहित कर रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो। अपनी विशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से नाकाम कर दिया। 1942 में ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न राजनैतिक दलों के छोटे-बड़े सभी नेताओं को जेलों में डाल दिया। डॉ. मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं। इसलिए धर्म के आधार पर वे विभाजन के कट्टर विरोधी थे। वे मानते थे कि विभाजन सम्बन्धी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी। वे मानते थे कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं! हममें कोई अन्तर नहीं है! हम सब एक ही रक्त के हैं! एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। परन्तु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। बावजूद इसके लोगों के दिलों में उनके प्रति अथाह प्यार और समर्थन बढ़ता गया। अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग ने जंग की राह पकड़ ली और कलकत्ता में भयंकर बर्बरतापूर्वक अमानवीय मारकाट हुई।
15 अगस्त, 1947 को जब देश स्वतंत्र हुआ तो शेख अब्दुल्ला षड्यंत्र रचने लगे, जबकि पाकिस्तान पहले से ही अधिक से अधिक भू-भाग का आकांक्षी था, लेकिन वो सफल नहीं हो पाया। डाॅ. मुखर्जी की सफल कूटनीति और जागरूकता के परिणामस्वारूप पंजाब और बंगाल का बड़ा भाग पाकिस्तान कब्जा नहीं कर पाया। भारत सरकार में डाॅ. मुखर्जी को उद्योग मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गयी। संविधान सभा और प्रान्तीय संसद के सदस्य और केन्द्रीय मंत्री के नाते उन्होंने शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। किन्तु उनके राष्ट्रवादी चिन्तन के चलते अन्य नेताओं से मतभेद बराबर बने रहे। फलस्रूप राष्ट्रीय हितों की प्रतिबद्धता को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानने के कारण उन्होंने मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने एक नई पार्टी बनायी जो उस समय विरोधी पक्ष के रूप में सबसे बड़ा दल था। 21 अक्टूबर, 1951 में भारतीय जनसंघ का उद्भव हुआ।
डॉ. मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहां का मुख्यमन्त्री (वजीरे-आजम) अर्थात् प्रधानमन्त्री कहलाता था। संसद में अपने भाषण में डॉ. मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। उन्होंने तत्कालीन जवाहर लाल नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिये वे 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े थे, वहां पहुंचते ही उन्हें बंदी बनाकर नजरबन्द कर लिया गया। अंततः डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की कश्मीर की यह अंतिम यात्रा हुई, 23 जून 1953 को उनकी निधन हो गया। 6 जुलाई, 1901 से 23 जून, 1953 के मध्य का समय राष्ट्रीय धरोहर की तरह युवाओं के लिए राष्ट्र की एकता, अखण्डता के इस बलिदान प्रेरणादायक स्मरण कराता रहेगा। डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का युग स्वाधीनता और राष्ट्रवाद के लिए सदैव स्मरण किया जायेगा।


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