परम सत्य को जाना जा सकता है!


जीवन स्वयं एक देवता है। देह, मन, प्राण, आत्मा आदि उसी जीवन देवता के अंग हैं। अतः आहार-विहार, वैचारिक-शुचिता और सात्विकता द्वारा आरोग्यता एवं जीवन सिद्धि के लिए प्रयत्नशील रहें ..! आहार शुद्धौ सत्वशुद्धि, सत्व शुद्धो ध्रुवा स्मृतिः। स्मृतिर्लब्धे सर्वग्रन्थीनाँ प्रियमोक्षः ...॥ अर्थात् आहार के शुद्ध होने से अन्तःकरण की शुद्धि होती है, अन्तःकरण के शुद्ध होने से बुद्धि निश्छल होती है और बुद्धि के निर्मल होने से सब संशय और भ्रम जाते रहते हैं तथा तब मुक्ति का मार्ग सुलभ हो जाता है। जो व्यक्ति शरीर के साथ अपने मन, विचार, भावना व संकल्प को भी शुद्ध, पवित्र एवं निर्मल रखना चाहता हो, उसे राजसिक व तामसिक आहार का त्याग कर सात्विक आहार ग्रहण करना चाहिए। आहार के बाद विहार का क्रम आता है। विहार अर्थात् रहन-सहन। इसे इन्द्रिय संयम भी कह सकते हैं। इसके अंतर्गत कामेन्द्रिय ही प्रधान है। योग साधना के दौरान इसकी निग्रह, शुचिता एवं पवित्रता अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य व्रत के द्वारा इसी कार्य को सिद्ध किया जाता है। इंद्रिय संयम के अंतर्गत वाणी का संयम भी अभीष्ट है। साधना काल में वाणी का न्यूनतम एवं आवश्यक उपयोग ही किया जाय व व्यवहार को भी संयत रखा जाय। निंदा, चुगली एवं वाद-विवाद से सर्वथा बचना चाहिए। जहाँ ऐसे प्रसंग चल रहे हों वहाँ से उठकर अन्यत्र चले जाना ही उचित है। अवाँछनीय दृश्य एवं प्रसंगों से स्वयं को सर्वथा दूर ही रखना चाहिए है। इस प्रकार आहार की तरह विहार में भी अधिकाधिक सात्विकता एवं पवित्रता का समावेश किया जाना चाहिए ...।
विचार स्पष्टता और चिंतन की प्रखरता स्वाध्याय के परिणाम हैं। सत्संग और संत-सानिध्य सर्वथा कल्याणकारक और दुःखहर्ता है। संयम, सेवा, स्वाध्याय, सत्संग, साधना और स्वात्मोत्थान के द्वारा परम सत्य को जाना जा सकता है। मानवी-जीवन को श्रेष्ठ और समुन्नत बनाने के लिये सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करना और इसे जीवन में उतारना अत्यन्त आवश्यक है। मनुष्य-जीवन का सच्चा मार्गदर्शक एवं आत्मा का भोजन है, स्वाध्याय। स्वाध्याय से जीवन को आदर्श बनाने की सत्प्रेरणा स्वतः मिलती है। स्वाध्याय हमारे चिंतन में सही विचारों का समावेश करके चरित्र-निर्माण करने में सहायक बनता है, साथ ही ईश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर भी कराता है। स्वाध्याय स्वर्ग का द्वार और मुक्ति का सोपान है। संसार में जितने भी महापुरुष, वैज्ञानिक, संत-महात्मा, ऋषि-महर्षि आदि हुए हैं, उन्होंने स्वाध्याय से ही प्रगति की है। स्वाध्याय का अर्थ, स्व का अध्ययन है। स्व का अध्ययन कराने में सबसे सहायक माध्यम हैं, सत्साहित्य एवं वेद-उपनिषद्, गीता, आर्ष-ग्रन्थ तथा महापुरुषों के जीवन-वृत्तान्तों का अध्ययन आदि ३।
संत-सत्पुरुषों के विचार से, ज्ञान से अथवा अध्ययन से आपको सुखानुभूति प्राप्त होगी। साधना की पहली सीढ़ी का पहला कदम तप है। संत के दर्शन का अर्थ तप की प्रेरणा है, क्योंकि जब वे तप करते हैं तब उन्हें पता है कि कैसे, किसको और किस रूप में ढालना है? वे इस संसार को नियंत्रित करते हैं। जिस तरीके से ऊंट को नियंत्रित किया जाता है, नकेल सेय घोड़े को नियंत्रित किया जाता है, लगाम से और हाथी को महावत नियंत्रित करता है, अंकुश से। ठीक उसी तरह जब हमारा मन अति अभिमानी, अति असंयमशील, भ्रष्ट और भ्रम के ताने-बाने में उलझ जाऐ, तब तप सबसे बड़ा शस्त्र है। पहला तप, आहार-विहार की शुचिता से मिलता है। जिस साधक के पास आहार-विहार की शुचिता नहीं, वह साधना नहीं कर सकता। साधु-संतों के पास आहार-विहार की बड़ी शुचिता होती है। उनका भोजन ग्रहण, मनन, चिंतन, कथन और श्रवण बड़ा संयत होता है। तभी तो दर्शन की चरम स्थिति पर पहुँचे ऋषि-मुनियों ने जगत के पदार्थों का विश्लेषण कर इन्हें परिवर्तनशील और क्षण भंगुर बताया हैं। उन्होनें समूची सत्ता को मिथ्या कहा है, जहाँ वेदों में भी इस बात का विवरण मिलता है। सत्य तो सिर्फ यही है, ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या। जब मानव मन स्वप्न के विकारों से अथवा दूषित सपनों से मुक्त हो जाता है तभी उसे मुक्ति मिलती है और यह मुक्ति आपको मिलेगी, एकांत शैली सेय जिसमें जगा हुआ साधक एकांत के इस पल को ध्यान, जप, भजन एवं प्रभु स्मरण में लगाता है ३।


 


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