मुझे दृष्टि कहते हैं

मेरा न रूप है, न रंग है, न जीवन है किन्तु संज्ञानहीन नहीं हूँ मुझमें चेतना नहीं लेकिन चेतनाशून्य भी नहीं हूँ। गति नहीं किन्तु गतिमान हूँ। ज्ञानी नहीं किन्तु ज्ञानवान हूँ। तेज रहित हूँ फिर भी निस्तेज नहीं। चंचल हूँ, पल-पल भागती रहती हूँ। वायु, विद्युत और ध्वनि सभी की गति से तेज दौड़ सकती हूँ, लेकिन मेरे पैर नहीं हैं। स्वयं में प्रकाश कहाँ किन्तु आँख और मन दोनों की ज्योति मैं ही तो हूँ। मेरा अस्तित्व नगण्य नहीं है। श्वास ओर मेरा जन्म-जन्मान्तर का रिश्ता है। हम जीवनमरण के साथी हैं। मुझे दृष्टि कहते हैं। मैं ही ज्ञान व मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाली हूँ। लक्ष्य बिन्दु पर यदि केन्द्रित हो जाऊँ तो सफलता कदम चूमने लगती है। मेरी चिन्तन धारा क्षण में दिग्दगन्त घूम आती है। स्वप्न दृष्टि से आपको ब्रह्माण्ड के दर्शन करा देती है। पहेली की तरह दृष्टिकूट हूँ। मुझे देखने, विचारने के अलग-अलग परिवेश हैं, दृष्टिकोण हैं। एक कवि ने कहा है:-
दृष्टि तो होती अनेक दृष्ट एक होता है। 
दृष्टि का दृष्टि से कोण भिन्न होता है।।
भुवि पर थी दीर्घ लघु रेखाएं खिंची तीन,
मध्यम थी दीर्घतर पर दीर्घतम दिखी दीन। 
कहते हैं ज्येष्ठ वहीं कनिष्ठ भी होता है।
 दृष्टिगत न होते हुए भी दृष्टिकोचर हूँ। कभी-कभी तो संसार को भ्रम में डाल देती हूँ। दृष्टि भ्रम करा देती हूँ जिसका कोई अस्तित्व नहीं उसका भी भास करा देती हूँ। मतवाद मेरे ही भेद, दृष्टि भेद की उपज है। बुद्धिमान को ही दृष्टिवंत या दृष्टा कहा जाता है और मैं उसके पास प्रखर रूप से विद्यमान रहती हूँ।
 मैं ही अभिलाषा हूँ, जीवन की परिभाषा हूँ मैं देखा हुआ प्रत्यक्ष हूँ, मानने वाला सिद्धान्त हूँ। न्यायाधीश मुझ पर विश्वास रखते हैं। मैं ही कल्पनाओं की रानी हूँ मुझसे ही उनका दृष्टिसार है। मैं बहुत से प्रत्यक्ष प्रमाण जो कान भाई नहीं कर सकते, मस्तिष्क को दे जाती हूँ।
 मानिसक दृष्टि से साहित्य सृजन करती हूँ और दृष्टि से बड़ों का सम्मान। जब मैं उज्जवल दृष्टि बनती हूँ। कवियों की भावानुभूति में मैं भावुक दृष्टि हूँ। मुक्त व शून्य दृष्टि से विचारमग्न, शान्त, सौम्य, चेहरे को भगवान स्वरूप बना देती हूँ-निष्पक्ष, निष्काम, निरपेक्ष। आदर्शवादी, समाजवादी और आतंकवादी सभी को मुक्त दृष्टि से विचारती हूँ। मन दृष्टि से तो मैं आकाश से पाताल तक पल भर में भ्रमण कर आती हूँ। प्रेम से वंचित होने पर कठोर दृष्टि अपना लेती हूँ। यों तो मैं सदा सर्वज्ञ सात्विक हूँ किन्तु जब व्यक्ति अपनी प्रवृत्तियों के आधार पर मुझे अपनाता है तो वह मेरा स्वरूप ही बदल देता है और मैं असहाय हो जाती हूँ। वासन्ती वातावरण में यदि हृदय में ईष्र्या दृष्टि से भर जाये तो मधुर सुरभि से भरे भूमंडल को हिलाकर रख देती जो सीधी दृष्टि रखते हैं उन्हें तो सरलता से पहचाना जा सकता है किन्तु जो नीची दृष्टि करके चलते हैं वे कभी-कभी बड़े खतरनामक सिद्ध हो जाती हैं। कभी-कभी तो तिरछी दृष्टि का अर्थ लगाना भी कठिन हो जाता है और यदि कोई गहरी दृष्टि से देखता है तो बहुत सोचना पड़ता है। वैसे जो अच्छे खिलाड़ी होते हैं वे दृष्टि की सभी चालों को पहचान लेते हैं किन्तु उनकी दृष्टि से बच निकलना आसान काम नहीं होता।
 कल्पना की दृष्टि असीम है। जिज्ञासु मन का विकास मैं ही करती हूँ यदि किसी ने दिव्य दृष्टि अपना ली तो मानो कंटक भरे दुर्गम पथ को संग्राम से पार कर गया। भक्तिभाव, स्वच्छ मन जागृत कर ब्रह्मा की प्राप्ति कराती हूँ। भविष्य दृष्टि का ज्ञान होते ही बहुमुखी प्रतिभा का विकास होता है।
 मैं सौन्दर्य बोध हूँ, सौन्दर्य शास्त्र हूँ। सौन्दर्य दृष्टि से सौन्दर्य सृष्टि की विशिष्ट कला दिखाती हूँ। कवि को सौन्दर्य और चिन्तन की अभिव्यक्ति के लिए काव्य सृजन हेतु प्रेरित करती हूँ।
 विश्व की राजनीतिक उथल-पुथल का मुख्य कारण मैं ही तो हूँ। लोग भले ही स्वीकार करें किन्तु उनमें भेदभाव, कलह और पारस्परिक संघर्ष का एकमात्र कारण दृष्टि भेद ही तो है। यह तो सभी कहते हैं कि ईश्वर या नियन्ता एक है, किन्तु दृष्टि भेद के कारण सम्प्रदाय पर सम्प्रदाय बनते गये और साथ ही साथ कलह भी बढ़ता गया। यदि सभी की दृष्टि साफ हो, एक हो तो यह धरती ही स्वर्ग बन सकती है परन्तु इसके लिए मैं क्या करूं। मैं तो अपने में समभाव और संवेदना रखती हूँ। परन्तु लोग मेरा दुरुपयोग कर दृष्टि बदल देते हैं, और दृष्टिकोण बदलते ही दल बन जाते हैं।
 मैं देवपथ की उत्कृष्ट दृष्टि भी हूँ। चाहूं तो शान्त गगन को भेदकर दिव्य प्रकाश मस्तिष्क को दे दूँ। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि मुझे पुष्पित और पल्लवित कर पुण्य के महासागर में निमग्न हो जायें, गौरवान्वित होने का सौभाग्य प्राप्त करें।
 अन्त में, मैं चाहूँगा मेरी आस्था को शनैः शनैः इसी दिशा में सर्वाधिक मनुष्य अपनायें यही दृष्टि आपके जीवन की सुगम सहचरी बन स्वर्ग का सच्चा मार्ग दिखायेगी। 


 


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