आद्य शंकराचार्य जी के विचार

चित्त को अपने लक्ष्य ब्रह्म में दृढ़तापूर्वक स्थिर कर वाह्य इन्द्रियों को (उनके विषयों से हटाकर) अपने-अपने गोलक को स्थिर करो, शरीर को निश्चल रखो, और उसकी स्थिति की ओर ध्यान मत दो। इस प्रकार ब्रह्म और आत्मा की एकता करके, तन्मयभाव से अखण्ड-वृत्ति से अहर्निशि मन ही मन आनन्दपूर्वक ब्रह्मानन्द रस का पान करो और थोथी बातों से क्या लेना है।
दुख के कारण और मोह रूप अनात्म-चिन्तन को छोड़कर आनन्द स्वरूप आत्मा का चिन्तन करो, जो साक्षात् मुक्ति का कारण है।
यह जो स्वयं प्रकाश सबका साक्षी निरन्तर विज्ञानमय कोश में विराजमान है, समस्त अनित्य पदार्थों से पृथक इस परमात्मा को ही अपना लक्ष्य बनाकर इसी का (तैलधारवत्) अखण्ड-वृत्ति से, आत्मा-भाव से चिन्तन करो।
अन्य प्रतीतियों से रहित अखण्ड-वृत्ति से इस एक ही का चिन्तन करते हुए योगी इसी को स्पष्टतया अपना स्वरूप जानें।
इस प्रकार इस परमात्मा में ही आत्म-भाव को दृढ़ करता हुआ अहंकारादि में आत्मबुद्धि छोड़ता हुआ उनकी ओर से शरीर से भिन्न घट-पट आदि वस्तुओं के समान उदासीन हो जाय। सबके साक्षी और ज्ञान स्वरूप आत्मा में अपने शुद्ध-चित्त को लगाकर धीरे-धीरे निश्चलता प्राप्त करता हुआ अन्त में सर्वत्र अपने को ही परिपूर्ण देखें। अपने अज्ञान से कल्पित देह, इन्द्रिय, प्राण, मन और अहंकार आदि समस्त उपाधियों से रहित अखण्ड आत्मा को महाकाश की भांति सर्वत्र परिपूर्ण देखें।
जिस प्रकार आकाश घट, कलश, कुशूल (अनाज का कोठा) सूची (सुई) आदि सैकड़ों उपाधियों से रहित एक ही रहता है नाना उपाधियों के कारण वह नाना नहीं हो जाता। उसी प्रकार अहंकारादि उपाधियों से रहित एक ही शुद्ध परमात्मा है।
ब्रह्म से लेकर स्तम्ब (तृण) पयन्त समस्त उपाधियां मिथ्या हैं, इसलिए अपने को सदा एक ही रूप में स्थित परिपूर्ण आत्मरूप देखना चाहिए।
जिस वस्तु की जहां (जिस आधार में) श्रम से कल्पना हो जाती है उस आधार का ठीक-ठाक ज्ञान हो जाने पर वह कल्पित वस्तु तद्रूप ही निश्चित होती है, उससे पृथक उसकी सत्ता सिद्ध नहीं होती। जिस प्रकार भ्रान्ति के नष्ट होने पर रज्ज में भ्रान्ति वश प्रतीत होने वाला सर्प रज्जुरूप ही प्रत्यक्ष होता है वैसे ही अज्ञान के नष्ट होने पर सम्पूर्ण विश्व आत्मस्वरूप ही जान पड़ता है।
स्वयं आत्मा ही ब्रह्मा, वही विष्णु, वही इन्द्र, वही शिव और वही यह सारा विश्व है आत्मा से भिन्न और कुछ भी नहीं है। आप ही भीतर है, आप ही बाहर है, आप ही आगे हैं, आप ही पीछे हैं, आप ही दाये हैं, आप ही बायें हैं और आप ही ऊपर है, आप ही नीचे हैं।
जैसे तरंग, फोन, भंवर और बुद्बुद् आदि स्वरूप से सब जल ही है, वैसे ही देह से लेकर अहंकार पर्यन्त यह सारा विश्व अखण्ड चैतन्य आत्मा ही है। मन और वाणी से प्रतीत होने वाला यह सारा जगत सत् स्वरूप ही है, जो महापुरूष प्रकृति से परे आत्मा-स्वरूप में स्थित है, उसकी दृष्टि में सत् से पृथक और कुछ भी नहीं है। मिट्टी से पृथक घट, कलश और कुम्भ आदि क्या है? मनुष्य मायामयी मदिरा से उन्मत्त होकर ही मैं-तू ऐसी भेद बुद्धि-युक्ति वाणी बोलता है।
कार्यरूप द्वैत का उपसंहार करते हुए ''जहां और कुछ नहीं देखता'' ऐसी अद्वैतपरक श्रुति मिथ्या अभ्यास की निवृत्ति के लिए बारम्बार द्वैत का अभाव बतलाती है। जो परब्रह्म स्वयं आकाश के समान निर्मल, निर्विकल्प, निःसीम, निश्चल, निर्विकार बाहर-भीतर सब ओर से शून्य, अनन्य और अद्वितीय है वह क्या ज्ञान का विषय हो सकता है?
इस विषय में और अधिक क्या कहना है? जीव तो स्वयं ब्रह्म ही है और ब्रह्म ही यह सम्पूर्ण जगत रूप से फैला हुआ है, क्योंकि श्रुति भी कहती है कि ब्रह्म अद्वितीय है और यह निश्चय है, जिनको यह बोध है कि मैं ब्रह्म ही हूं वे वाह्य विषयों को सर्वथा त्यागकर ब्रह्मभाव से सदा सच्चिदानन्द स्वरूप में ही स्थित रहते हैं।
इस मलमय कोश में अहं बुद्धि से हुई आसक्ति को छोड़ो और इसके पश्चात् वायु रूपा लिंग देह में भी उसका दृढ़तापूर्वक त्याग करो, तथा जिसकी कीर्ति का वेद बखान करते हैं उस आनन्द स्वरूप ब्रह्म को ही अपना स्वरूप जानकर सदा ब्रह्म रूप से ही स्थिर होकर रहो।
श्रुति भी यही कहती है कि मनुष्य जब तक इस मृतक तुल्य देह में आसक्त रहता है तब तक वह अत्यन्त अपवित्र रहता है और जन्म, मरण तथा व्याधियों का आश्रय बना रहकर उसको दूसरों से अत्यन्त क्लेश भोगना पड़ता है। किन्तु जब वह अपने कल्याण स्वरूप, अचल और शुद्ध आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है, तो उन समस्त क्लेशों से मुक्त हो जाता है।


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