भारतीय संस्कृति में ध्येय की पराकाष्ठा

 


भारतीय संस्कृति में एक-एक सद्गुण के लिए, एक-एक ध्येय के लिए, अपने सर्वस्व का अर्पण कर देने वाली महान विभूतियां दिखाई देती है, भारतीय संस्कृति मानों इन विभूतियों का ही इतिहास है। कहा जाता है कि महापुरूषों का चरित्र ही इतिहास होता है। भारतीय संस्कृति के इतिहास के माने हैं-भारतीय संतों का इतिहास, भारतीय वीरों का इतिहास।
भारतीय संस्कृति में त्याग और पवित्रता इन दो गुणों का बहुत बड़ा स्थान है, भारतीय मनुष्य केवल पैसे को, केवल सत्ता को महत्व नहीं देता। उस गुण के साथ त्याग और पवित्रता भी होनी चाहिए। दरिद्री शुक्राचार्य को भारतीय जनता देवता की तरह मानेगी, भारतीय जनता ने कभी राजा की पालकी नहीं उठाई, लेकिन संतों की पालकी तो हजारों लोग प्रतिवर्ष उठाते हैं। जनक केवल इसलिए प्रातः स्मरणीय नहीं थे कि वे राजा थे बल्कि इसलिए कि वे ज्ञानी होकर भी विरक्त थे। त्याग के बिना ज्ञान नहीं मिलता। आसक्त के लिए ज्ञान कहां हैं? ज्ञान का अर्थ है अद्वैत ज्ञान। ज्ञान का महत्व है अद्वैत की अनुभूति। जीवन में जैसे-जैसे अद्वैत की अनुभूति अधिकाधिक होने लगती है वैसे-वैसे अधिकाधिक त्याग भी होने लगता है। अतः भारतीय संस्कृति त्याग को ही अद्वैत का चिन्ह मानती है।
इस प्रकार के त्याग के साथ पवित्रता भी आती है। जो त्याग अद्वैत की अनुभूति में से उत्पन्न होता है, वह अपने साथ पवित्रता लाये बिना नहीं रहता। सब लोगों की दृष्टि इस बात पर है कि भारत में स्त्री-पुरूष के सम्बन्ध कैसे हैं, यहां कार्य पवित्र पहले देखा जाता है। आप में दूसरे बहुत से गुण हैं लेकिन कार्य पवित्र का महान गुण नहीं है तो जनता आप का आदर नहीं करेगी। आप जनता के हृदय के स्वामी नहीं हो सकेंगे।
लोकमान्य और महात्मा जी के प्रति हमारी अपार भक्ति का कारण है उनका निष्कलंक चरित्र और अपार त्याग। भारतीय जनता सबको कार्य-पवित्र का थर्मामीटर लगाकर देखती है, त्याग की कसौटी पर परखती है। जो इन दोनों कसौटियों पर खरा उतरता है, वह उसके पीछे पागल हो जाती है, वह उस महापुरुष को सिर पर उठाकर नाचती है।
लोगों के मन पर इन दोनों गुणों का महत्व अंकित करने के लिए भारतवर्ष में अपार त्याग किया गया है। पवित्रता के सम्बन्ध में किसी में थोड़ी सी भी शंका उत्पन्न होते ही राम सीता का त्याग कर देते हैं, अपनी पवित्रता के भंग होने के भय से राजपूत रमणियां जौहर की ज्वाला में अपना सर्वस्व स्वाहा कर देती थी। पति की मृत्यु के बाद तन-मन से पवित्र रह सकेंगी या नहीं, इस शंका से स्त्रियां हंसते-हंसते चिता पर चढ़ जाती थी और ज्वाला का आलिंग्न कर लेती थी। वह आलिंगन ज्वाला का नहीं पवित्रता का होता था।
राम राजा थे, उनका उदाहरण हमेशा लोगों के सामने रहेगा। कहा जाता है कि 'यथा राजा तथा प्रजा'। अतः राजा के ऊपर बहुत जिम्मेदारी है, भारत के नेताओं को रामचन्द्र जी के इस उदाहरण को नहीं भूलना चाहिए। रामचन्द्र जी ने अपनी ध्येय की पराकाष्ठा की। लोगों के मन में पवित्रता के लिए अविचल श्रद्धा उत्पन्न करने के उद्देश्य से जब इस प्रकार का त्याग किया जायेगा और जनता उसे देखेगी, तभी अधिकांश लोगों पर पवित्रता का थोड़ा-थोड़ा महत्व प्रकट होगा अन्यथा नहीं।
हिमालय के शुभ्र और उच्च शिखर की भांति राम की उदारता जितनी दिखाई देती है, उतनी ही सीता की सहनशीलता भी दिखाई देती है। अपने पति पर किये गये आक्षेपों को वह किस प्रकार सहन कर सकती थीं? अपनी निन्दा के दुःख की अपेक्षा रामचन्द्र जी के चरित्र की निन्दा उन्हें ज्यादा बुरी लगी होगी और राम सीता कहीं-कहीं अलग थोड़े ही थे। वे तो एक रूप ही थे, सीता कहीं भी जाती उनके जीवन में राम ओत-प्रोत हो रहे थे और सीता कहीं भी होती वह तो रामचन्द्र जी के जीवन में विलीन हो चुकी थी।
पत्थर की चारपाई बनाकर सीता जंगल में रहती है, पत्थर के ऊपर अपने बच्चे को लिए हुये लेटी है। कितनी करूण और गंभीर हैं यह सीता!
और देखिए भरत का भ्रात् प्रेम! मेरे राम तो वन जायें और मैं राजगद्दी पर बैठूं? राम कन्द-मूल खाऐं और मैं मिष्ठान खाऊं? भरत नन्दीग्राम में 14 वर्ष तक श्री राम को स्मरण करते हुए रहे। उन्होंने भी वत्कल पहने, जटाऐं धारण की और कन्दमूल पर रहे।
लक्ष्मण तो राम के साथ वन में गये, भरत रामचन्द्र जी का चिन्तन करते हुए जिन्दा रहे, परन्तु लक्ष्मण तो उनके दर्शन करके ही जीवित रहे। तुलसीदास जी की रामायण में इस प्रसंग का बड़े ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है। लक्ष्मण ने कहा- ''रामचन्द्र जी, बिना पानी के मछली कैसे जीवित रह सकती है? बिना मां के बच्चा कैसे रहेगा? उसी तरह आपके बिना मैं कैसे रह सकता हूं।
''रामचन्द्र जी, लकड़ी के ऊपर ध्वजा फहराती है। अपने यश की ध्वजा फहराने देने के लिए लक्ष्मण को उसकी लकड़ी बनने दो। लक्ष्मण आपके लिए ही है, आपके बिना लक्ष्मण का कोई अर्थ नहीं होगा।''
भारतीय संस्कृति को राम, लक्ष्मण सीता-भरत ने ही बनाया है। भारतीयों के खून के कण-कण में उनके चरित्र समाये हुए हैं। भारतीयों की आंखों के सामने यह लिखा हुआ है कि यह महान आदर्श अमर है।
भिन्न-भिन्न आर्दशों की कोई कमी नहीं है ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले भारतीय उपासकों को देखिए। हनुमान जी को देखिए। लंका में इधर-उधर तलाश करते हुए रनिवास की ओर नहीं मुड़े। केवल एक झोपड़ी में राम नाम का जप सुनकर उन्होंने झांका। वहां त्रिजटा थीं। इसी प्रकार है अपार इच्छा शक्ति वाले, अपनी इच्छानुसार मरने वाले भीष्म, और वैराग्य के रंग में पूरे रंगे हुए शुकदेव जी।
निश्चयमूर्ति धु्रव हमारी आंखों के सामने आ जाता है, पिता द्वारा गोदी में से उतार दिये जाने का अपमान उसे सहन नहीं हुआ। उस अटल पद को प्राप्त करने के लिए वह तेजस्वी बालक घर से निकल जाता है, जहां से उसे कोई उतार नहीं सकता। पिता को लज्जा अनुभव होती है और वह बालक का पीछा करता हुआ जाता है।
''लोटो बेटा दे दूंगा दो ग्राम तुझे
बोले धु्रव क्या दे सकते हो राम मुझे?''
पिता सारा राज्य दे देने की बात कहते हैं, लेकिन दृढ़व्रत धु्रव वापस नहीं लौटता।
ऐसे ही हैं बालभक्त प्रहलाद, एक बार नहीं कहा तो फिर हमेशा नहीं। वह कहता था ''चाहे पहाड़ से गिरा दीजिये, चाहे फांसी पर मैं भगवान का स्मरण किए बिना नहीं रह सकता।'' यह ध्येयवादी प्रहलाद हमेशा भारत को स्फूर्ति देता रहेगा। हम कहेंगे वन्दे मातरम्, स्वराज्य, इन्कलाब-जिन्दाबाद। हम कहेंगे पूंजीवाद का नाश हो, साम्राज्यवाद का नाश हो। फिर चाहे इस शरीर का कोई कुछ करे, हमारा ध्येय हमारे जीवन में प्रकट होगा, जो ओठों पर वही मन में, हाथ में वहीं आंखों में। भगवान के स्मरण का अर्थ है सारी मानव जाति का स्मरण, जो सारे मनुष्यों का घर है वही नारायण का स्वरूप है। सारी मानव जाति को सुखी करने की इच्छा करना मानो भगवान का झण्डा फहराना है।
और सत्यमूर्ति सत्य सागर राजा हरिश्चन्द्र? स्वप्न में कहे गये शब्दों का पालन करने के लिए उसने त्याग किया। कितना कष्ट उठाया। वे स्वप्न में भी असत्य का स्पर्श नहीं करते थे। तारावती, रोहित और हरिश्चन्द्र तीनों का मूल्य त्रिभुवन के बराबर है।
चाण्डाल के यहां नौकरी करते हुए कितनी हृदय विदारक घटना घटी। वे अपने बालक के लिए भी अग्नि नहीं दे सकते हैं। उन्हें अपनी पत्नी की ही हत्या के लिए तलवार उठानी पड़ी, उनका मन कितना कुसुमादपि कोमल और वज्रादपि कठोर था।
ध्येय से जरा भी च्युत होने का फल भोगना पड़ता है। ध्येय तो ध्येय ही है, कपड़े के ढेर में एक भी चिंगारी पड़ जाने से सब स्वाहा हो जाता है। ''नरो मरो वा कुंजरों बा'' कहते ही धर्मराज का पृथ्वी के चार अंगुल ऊपर चलने वाला रथ दूसरों के रथ की तरह ही पृथ्वी पर चलने लग गया। पवित्रतम राजा नल के पैर की अंगुली का थोड़ा सा भाग अच्छी तरह धुल नहीं पाया, थोड़ा मैल रह गया, बस उस पर तिल बराबर जगह में से ही कलियुग उसके जीवन में प्रविष्ट हो गया।
महारथी कर्ण और राजा बलि ने दानशीलता की हद कर दी यह जानकर भी वह अपने शरीर के कवच कुण्डल काटकर दे देता है। मुंह से नहीं कहने के बजाय मृत्यु स्वीकार कर लेना उसका स्वभाव ही था। वह अपने पिता सूर्य से कहने लगा- ''मैं मूर्ख नहीं हूं मैं तो व्यावहारिक हूं संसार उसे ही व्यावहारिक व्यक्ति कहता है। जो थोड़ी कीमत देकर बहुत कुछ प्राप्त कर लेता है, मैं इस नश्वर शरीर को देकर अमर कीर्ति को प्राप्त कर रहा हूं। इस मिट्टी को देकर ऐसा यश ले रहा हूं जो संसार के अन्त तक टिका रहेगा।'' उसने यह कितना सुन्दर और अच्छा सौदा किया।
इसी तरह राजा बलि भी है, जब वामन भगवान को पैर रखने के लिए जगह नहीं बची तब उसने अपना सिर आगे कर दिया। बलि को मुसीबत में पड़ा देखकर मद-मत्सर से भरे हुए देवता नगाड़े बजाने लगे, दुन्दुभि बजाने लगे, लेकिन धीरे वीर बलि कहता है-
अमरों की जय जयकारों का मुझे नहीं भय उतना।
अपने अपयश का प्रतिदिन ही लगता है भय जितना।।
मुझे तो अपने यज्ञ की चाह है, मैं इन देवताओं के हो हल्ले की चिन्ता नहीं करता। मृच्छकर्टक में चारूदत्त ने भी इसी प्रकार के उद्गार प्रकट किये हैं-
विशुद्धस्य हि मे मृत्युः पुत्र जन्मसमः किल।
यह भारतीय संस्कृति की आवाज है।
शरणागत की रक्षा के लिए राजा शिवि अपनी जंघा का मांस काटकर दे देता है। मयूरध्वज आधा शरीर काटकर दे देता है और जब उसे मालूम होता है कि मेरी बायीं आंख में आंसू देखकर अतिथि चला जाएगा तो वह कहता है- ''यह पानी मेरी आंख में इसलिए नहीं आया कि इस शरीर को मुझे करवत से काटकर देना पड़ रहा है बल्कि इसलिए कि दाहिना अंग सार्थक हो रहा है और इसे उतना सौभाग्य नहीं मिला है।''
अतिथि के सामने अपने इकलौते पुत्र के सिर का मांस पकाकर परोसने वाली चांगुणा अपने पुत्र का सिर गाते हुए कूटती है। कितना धैर्य है। कितना त्याग! कितनी ध्येयोत्कटता है और अंत में अतिथि राजा को भी भोजन के लिए बुलाता है, राजा श्रीपाल विकल हो जाता है, उस समय वह महासती पति को धैर्य देते हुए कहती है-
''मैंने रक्खा था इस सुत को
खुशी-खुशी नव मास उदर में।
क्या तुम निपट विकल होओगे
रखकर उसको चार प्रहर में।।''
''अर्थात मैंने इस पुत्र को नौ महीने तक पेट में रखा था। क्या तुम उसे चार प्रहर तक अपने पेट में नहीं रख सकोगे?
राजा हंसध्वज मुनादी करवाता है कि जो लड़ाई के लिए तैयार होकर घर से बाहर नहीं आयेगा उसे गरम-गरम तेल में डाल दिया जायेगा। लेकिन उनका प्रिय पुत्र सुधन्वा पत्नी प्रेम के कारण घर रह जाता है, उसे आने में देर हो जाती है, लेकिन त्यागी राजा हंसध्वज आगा-पीछा नहीं देखता है। वह अपने मन में सोचता कि जो सजा मैं दूसरों को देता हूं क्या मुझे वही सजा अपने पुत्र को देनी चाहिए? सुधन्वा गरम तेल में डाल दिया जाता है।
सावित्री अपने पति के लिए यमराज के पीछे-पीछे जाने के लिए तैयार होती है। घोर जंगल! रात्रि का समय! सामने मृत्यु देवता! लेकिन वह सती डरती नहीं है। वह यमराज का ही हृदय परिवर्तन कर देती है।
और वह गांधारी! उसने सोचा- जब पति अंधे हैं तब मैं दृष्टि का सुख कैसे भोगूं? वह जन्म भर तक अपनी आंखों को बांधकर रखती है, इस त्याग की तो कल्पना भी नहीं हो सकती। गांधारी के सामने भगवान कृष्ण थर-थर कांपते हुए खड़े रहते थे।
जगन्नाथ पुरी के पास के नीले आकाश को देखकर और मन में यह सोचकर कि मेरा घनश्याम कृष्ण ही है, हाथ ऊंचे करके समुद्र में नाचते फिरने वाले महान बंगाली वैष्णव वीर चैतन्य! विष का प्याला पीने वाली, भक्ति प्रेम हो नाचने वाली मीरा। स्वामी के काम के लिए अपने पुत्र का बलिदान करने वाली पन्ना।
'यदि दिन में चैबीस के बजाय पच्चीस घंटे होते तो मैं प्रजा का अधिक कल्याण कर सका होता यह कहने वाला विश्वभूषण राजा अशोक।
प्रति पांचवे साल अपने सारे खजाने को लुटाकर अकिंचनत्व को सुशोभित करने वाला राजा हर्ष।
जंगल में कन्दमूल फल पर जीवित रहने वाला, घास-फूस पर सोने वाला, राणा प्रताप।
प्रजा द्वारा लगाये गये पेड़ों को भी हाथ न लगाओ- इस प्रकार का आज्ञा पत्र निकालने वाले और परस्त्री को माता के समान समझने वाले छत्रपति शिवाजी।
फल के बगीचे में से अपने हाथों एक फल तोड़ लिए जाने पर अपने हाथ कटवा देने की इच्छा रखने वाले दादा जी कोडदेव।
मैंने पांच तोपें सुन ली, अब सुख से मर रहा हूं ये शब्द कहने वाले - बाजी प्रभु।
'कहले कोऽण्यां का विवाह, बाद में राधवा का' यह कहने वाले ताना।
धर्म के लिए अपने राई-जैसे टुकड़े करवा लेने वाले संभाजी।
अपने स्वामी के कार्य के लिए सब कुछ बेच देने वाले खण्डो बल्लाल।
'बचेंगे तो और लड़ेंगे' कहने वाले दत्ता जी।
'ऐसा काम कीजिए कि मुंह से गिरने वाला कफ शौच के द्वारा निकल जाए और मेरा मुंह राम नाम बोलने के लिए मुक्त हो जाए' वैद्यों से इस प्रकार की प्रार्थना करने वाले पेशवा माधव राव।
'तुम्हें प्रायश्चित के रूप में अग्नि स्नान करना चाहिए' ऐसा राधोवा को कहने वाले न्यायमूर्ति रामशास्त्री।
प्रजा को कष्ट पहुंचाने वाले अपने पुत्र को भी त्याग देने वाली देवी अहिल्याबाई।
'मेरे मरने के बाद दूसरों को मेरे शरीर का स्पर्श न करने देना' ये बात कहने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई।
'मैंने जो उचित था वही किया, मुझे खुशी से फांसी दे दी जाए' यह कहने वाले तात्या टोपे।
यह है भारतीय परम्परा! यह है ध्येय-पूजा! भारत के प्रत्येक प्रान्त में इस प्रकार की ध्येय पूजा करने वाले नर नारी रत्न जन्म लेते रहे हैं।


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