क्यों मर जाते है शादी के समय रिश्तेदार

ईधर लगातार कुछ ऐसे केसस मेरे सामने आये जिसमें कन्या या वर के विवाह के कुछ एक माह के अंदर या पूर्व वर या वधु पक्ष के किसी परिजन की मृत्यु हो गई इसका ज्योतिष कारण ढूढने की जिज्ञासा पैदा हुयी खोज करने पर प्राचीन ग्रन्थों मे वर्णित विषकन्या योग प्राप्त हुआ। गणेश कवि द्वारा रचित जातकालंकार, यवन जातक, पाराशर होरा, प. मुकुंद बल्लभ मिश्र की फलित मार्तण्ड, ल. लखन लाल झा की व्यवहारिक ज्योतिष तत्वम्, होरा रत्नम्, मुहुर्त गणपति, योगजातक, मे इसकी व्याख्या की गई है।
1. जातकालंकार चतुर्थ अध्याय श्लोक 1 के अनुसार आश्लेषा, कृतिका, शतभिषा नक्षत्रों के दिन रवि, मंगल, शनिवार तथा भद्रा तिथि मे द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी जिस कन्या का जंम हो वह विषकन्या होती है।
2. लग्न मे शनि, नवम मे मंगल और पंचम मे सूर्य स्थित हो तो विषकन्या योग होता है।
3. भद्रा तिथि मे उक्त वारों, या नक्षत्रों का संयोग होने से विष योग बनता है लग्न मे दो शुभ ग्रह, दशम मे एक पाप ग्रह तथा षष्ठ भाव मे दो पाप ग्रह होने पर भी विष योग बनता है। 
विषकन्या योग जान लेवा होता है। कन्या शोकाकुल होती है। मृत संतान पैदा होती है। पति कुल मे विषैला प्रभाव होता है। विवाह पूर्व व उपरांत घर या ससुराल मे मृत्यु होती है। इसका प्रभाव बहुत भयंकर होता है प्रायः विषकन्या मातृ कुल व पति कुल दोनो मे ही घात करने वाली होती है। 
परिहार-होरा रत्नम के अनुसार यदि कुण्डली मे परिहार ना मिले तो कन्या सावित्री व्रत का पालन करे फिर वट वृक्ष, कुंभ या नारायण विवाह करवा कर  बाद मे दीर्घायु योगों वाले वर से विवाह करे।  
कुछ विद्वानों के अनुसार यदि विषकन्या का विवाह विषपुरूष से हो तो विषकन्या दोष कट जाता है। लग्न या चन्द्र से सप्तमेश सप्तम मे या शुभ ग्रह सप्तम भाव मे हो या सप्तम भाव पर सप्तमेश या शुभ ग्रहों की दृष्टि हो या सप्तमेश उच्च का हो तो विषकन्या योग नष्ट हो जाता है। (जातकालंकार व व्यवहारिक ज्योतिष तत्वम्) इस संदर्भ मे अंय महत्वपूर्ण सूत्र फलदीपिका, जातक पारिजात तथा काल विधान नामक ग्रन्थों मे प्राप्त होता है। कुछ विशेष मूलादि नक्षत्रों, नक्षत्र चरणों व नक्षत्र संधियों मे जमं लेने वाली कन्यायें भी अपने सास, ससुर, देवर, जेठ, नन्द, पति के माता-पिता, दादा-दादी के लिये या अपने स्वजनों के लिये घातक होती हैं। आश्लेषा, विशाखा, ज्येष्ठा, मूल आदि नक्षत्रोे मे जंम लेने वाली कन्यायें सास या जेठ का कष्ट देने वाली या मृत्युदायक होती है। काल विधान के अनुसार मूल की प्रांरभ घटी, ससुर को, आश्लेषा का प्रथम चरण सास को, ज्येष्ठा का प्रथम चरण, देवर को,तथा विशाखा का चतुर्थ चरण देवर को घात देता है। 
फलदीपिका मे चित्रा, आद्र्रा, आश्लेषा, ज्येष्ठा, शतभिषा, मूल, कृतिका नक्षत्र मे जंमी कन्याओं को पति संतान हेतु घातक बताया गया है। जातक पारिजात मे नक्षत्र संधि मे जंम लेने वाली कन्याओं को माता-पिता, संातन, भाई-बहनों, सास-ससुर, बाबा हेतु मृत्युकारी बताया गया है। मूल, रेवती, अश्विनी, पूर्वाषाढा, चित्रा, भरणी आश्लेषा, ज्येष्ठा, हस्त की, नक्षत्र संधि विशेषतः घातक होती है। 
ज्योतिष ग्रन्थों मे इन दोषों अपवादों तथा परिहारों का भी वर्णन है। वर-वधु पक्ष के लोगो को चाहिये कि वे अति विद्वान ज्योतिषियों से विवाह पूर्व कुण्डली मिलायें और दोषों का शास्त्रों के अनुसार उपचार करके अपने जीवन को सुखी बनायें।


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