उत्तेजित होकर मनुष्य बड़े-बड़े दुस्साहसपूर्ण कार्य कर डालते हैं

जिस विचारधारा में मनुष्य परिभ्रमण करता है, वैसा ही स्वयं बनने लगता है, जो आदर्श, सिद्धांत, लक्ष्य, श्रद्धापूर्वक अंतरूभूमि में धारण किये जाते हैं, उनका एक साँचा तैयार हो जाता है। इस साँचे में गीली मिट्टी की तरह मनुष्य ढलने लगता है और यदि कुछ समय लगातार, दृढ़ता एवं श्रद्धापूर्वक यह प्रयत्न जारी रहे, तो जीवन पकी हुई प्रतिमूर्ति की तरह ठीक उसी प्रकार का बन जाता है। 
चोरी, डकैती, ठगी, व्यभिचार, बेईमानी आदि दुष्कर्म कोई व्यक्ति यकायक नहीं कर बैठता। विचार बहुत पूर्व से उसके मन में चक्कर लगाते हैं, इससे धीरे-धीरे उसकी प्रवृत्ति इस ओर ढलती जाती है और एक दिन सफल बदमाश बन जाता है। यही बात भलाई के मार्ग में होती है। बहुत समय तक स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन करने के उपरान्त उत्तम विचारों के संस्कार दृढ़ होते हैं, तब कहीं प्रत्यक्ष जीवन में वे लक्षण प्रगट होते हैं और वह वैसा बन जाता है।
पदार्थ विज्ञान के ज्ञाताओं को विदित है कि समान श्रेणी के पदार्थों की सहायता से सूक्ष्म तत्त्वों का आकर्षण और प्रगटीकरण हो सकता है। गन्धक, फास्फोरस, पुटाश, सरीखे अगिनतत्त्व प्रधान पदार्थों का अमुक प्रक्रिया के साथ संघर्ष करने से विश्वव्यापी सूक्ष्म अगिनतत्त्व चिनगारी के रूप में प्रगट हो जाता है। इसी प्रकार शब्द और विचारों की सहायता से चैतन्य तत्त्वों का आकर्षण और प्रगटीकरण हो सकता है। 
एक लेखक या वक्ता एक विशेष अनुभूति के साथ लोगों के सामने अपने विचार इस प्रकार रखता है कि वे विविध भाववेशों में डूबने, उतराने लगते हैं। हँसते को रुला देना और रोते को हँसा देना कुशल वक्ता के बायें हाथ का खेल है। इसी प्रकार क्रोध, घृणा, प्रतिहिंसा या दया, क्षमा, उपकार आदि के भावावेश शब्द और विचारों की सहायता से किसी व्यक्ति में पैदा किये जा सकते हैं।
भावनाओं का आवागमन, शब्द और विचारों की सहायता से होता है, संगीत, नृत्य, गान, रोदन, हुंकार, गर्जना, गाली, ललकार, विनय, मुस्कराहट, अट्टहास, तिरस्कार, अहंकार से सने हुए शब्द सुनने वालों के मन में विविध प्रकार के भाव उत्पन्न करते हैं और उन भावों से उत्तेजित होकर मनुष्य बड़े-बड़े दुस्साहसपूर्ण कार्य कर डालते हैं। शब्द और विचार मिलकर एक ऐसा शक्तिशाली माध्यम बन जाते हैं जो सूक्ष्म चैतन्य जगत में से उसी प्रकार के तत्त्वों को खींच लाते हैं और जिस स्थान पर उन्हें पटका गया था वहाँ प्रगट हो जाते हैं। दूसरों के ऊपर ही नहीं-अपने ऊपर भी अमुक प्रकार के चैतन्य तत्त्वों को इसी माध्यम द्वारा भराा जा सकता है। इससे प्रगट है कि परमाणुमय भौतिक जगत की भाँति, संकल्पमय चैतन्य जगत में भी वैसे माध्यम मौजूद हैं जो अदृश्य तत्त्वों और शक्तियों को खींच लाते हैं और उनका प्रत्यक्षीकरण कर देते हैं।
गायत्री की शब्दावली एक ऐसा ही माध्यम है। इसकी शब्द शृंखला का गुंथन इस प्रकार हुआ है कि भावना ग्रंथियाँ उत्तेजित होती हैं और यह मंत्रोच्चारण एक ऐसा शक्तिशाली माध्यम सूत्र बन जाता है जिसके द्वारा गायत्री की ब्राह्मी शक्ति सूक्ष्म लोक से खींच-खींच कर मनुष्य के अन्तरूकरण में जमा होने लगती है और वह दिव्य तत्त्वों से ओत-प्रोत होने लगता है। गायत्री की साधना से सतोगुण की ब्राह्मी भावनाएँ अन्तरू प्रदेश में अपना केन्द्र स्थापित करती हैं। उन भावनाओं के अनुरूप आन्तरिक जीवन बन जाता है उसी प्रकार की प्रवृत्तियाँ बाह्य जीवन में भी दृष्टिगोचर होती हैं। आत्मा की समीप सत् चित्त और आनन्दमय तत्त्वों का भण्डार प्रचुर मात्रा में जमा होने लगता है। यह संचय ही आत्मबल कहलाता है। इस प्रकार वेदमाता गायत्री की कृपा के साधक आत्म-बल सम्पन्न बन जाता है।


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