विवाह मे राहू का महत्व

- डी.एस. परिहार

पिछले कई वर्षों मे विवाह संबधी प्रकरणों मे यह तथ्य प्रकाश मे आया है। कि कभी-कभी विवाह के समय निर्घारण की भविष्यवाणियां सही हुयी है, और कभी-कभी काफी विलंब से सम्पन्न हुयी है। इस दिशा मे शोघ करने पर पता चला है। कि विवाह मे राहू का विशेष योगदान रहता है। परन्तु राहू के बारे मे अधिक साहित्य उपलब्ध ना होने के कारण अधिकांश दैवज्ञ एक उदासीन दृष्टिकोण राहू केतु के प्रति रखते है।

 शोध मे राहू केतु का गमन चमत्कारी फलादेश मे बड़ा ही महत्वपूर्ण है। विषेषतः जब राहू अपने नक्षत्र मे किसी भाव मे गमन करता है। और वहां पर पूर्ण कारत्व प्राप्त हो तो विशिष्ठ घटना देता है। समस्या पचांग को ना समझने की है। राहू व केतु सदैव एक योग का निर्माण करते है। जब राहू किसी जमांक मे लग्न या सप्तम भाव मे होता है तो ऐसे मामलों मे राहू और केतु का वहां पर गमन विवाह का कारकत्व बन जाता है दूसरी समस्या ज्योतिषशास्त्र मे महादशा के विज्ञान के बारे मे उत्पन्न भ्रम व विवादग्रस्त होने के कारण है। विवाह का समय महादशा विज्ञान से सम्पन्न होना चाहिये केवल चन्द्रमा को आधार मान कर महादशा का निर्धारण विवाह का सही समय नही रेखाकिंत करता है। विशेषतः सप्तमेश की निर्बल स्थिति मे राहू केतु का सप्तम भाव या सप्तमेश से संयोग विवाह का प्रधान कारण बनता है। एक दैवज्ञ को सदैव ज्योतिषशास्त्र मे सिद्धान्तों के कारणों की खोज करनी चाहिये यथा कर्क का राहू क्यों उत्तम है। क्योंकि वक्र गति के कारण वह अपनी उच्च राशि वृषभ राशि की तरफ गमन गति होने के कारण उच्चाभिलाषी होता है। अतः शुभ फल देता है। राहू को ही केवल अष्ठोत्तरी दशा मे क्यों सम्मलित करते है। शीघ्र बोध मे भी विवाह प्रकरण मे बहुत सारे सूत्रों की व्याख्या की गई है। किन्तु केतु के बारे में कोई उल्लेख नही है। नाड़ी दोषों के अध्ययन मे भी जानबूझ कर राहू केतु को बहिष्कृत कर दिया गया है। और कुछ प्राणामिक सूत्रों और ग्रन्थों की रचना कर दी गई है। राहू व केतु की विवेचना यह है। कि वे सदैव एक दूसरे से 180 अंष पर रहते है। राहू जिस नक्षत्र पर होता है। उससे 14 वें नक्षत्र पर केतु रहता है। दोनो परस्पर एक योग का निर्माण ठीक उसी प्रकार करते हैं। जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा करते है। अतः लग्न या सप्तम भाव मे राहू या केतु जामित्र दोष भी उत्पन्न कर सकते है। यह दोष किसी भी ग्रह के कारण होता है। जब विवाह की बात चलती है। तो चतुर्थ भाव का विचार प्रधान रूप से किया जाता है। यदि कुण्डली वर की है। तो निश्चय ही उसके चतुर्थ भाव पर किसी ग्रह का गोचर होगा जो महादशा के विज्ञान से समर्थित होगा दूसरी तरफ कन्या के विवाह मे चतुर्थ भाव के विपरीत तृतीय गृहत्याग, मामा इत्यादि का प्रश्न पैदा होगा अतः वर की कुण्डली का चतुर्थ भाव तथा कन्या के जमांक चन्द्रमा की स्थिति और तृतीय भाव परस्पर जुड़े होते है। यदि कोई दैवज्ञ वर की कुण्डली के आधार वर कन्या की जन्म राषि व नक्षत्र पता नही लगा सकता है। तो वह नाड़ी दोष या विवाहेत्तर घटनाओं की जानकारी नही दे सकता है। अतः ज्योतिषी को अनुभव के आधार पर इतना दक्ष होना चाहिये वह वर की कुण्डली से किस लड़की से विवाह होगा उसकी जन्मराशि व नक्षत्र की जानकारी कर ले। इस दिशा मे जैमिनी सूत्रों का अवलम्ब किया जा सकता है। ना ही दाराकारक ग्रह सबसे कम अंशों पर स्थित रहता है। यदि राहू भी न्यूनतमम अंशो पर हो तो वह राहू विवाह का कारक हो सकता है। राहू की दशा, महादशा के रूप मे 18 वर्षों तक प्राप्त होती है। किसी व्यक्ति मे राहू की महादशा चल रही है तो उसके पीछे क्या सिद्धान्त है। केवल चन्द्रमा के आधार मान कर की गई गणना निष्चय ही भ्रामक और त्रुटिपूर्ण होगी।
 राहू का गमन केतु के गमन से विपरीत परिणाम देता है। इसलिये ज्योतिष ग्रन्थों मे उल्लेख मिलता है। कि राहू की दशा मे जो उपलब्धियां मिलती है। वह धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। अर्थात राहू जो एक हाथ से देता है वह दूसरे हाथ से छीन लेता है। नाड़ी दोष के बारे मे यहां इतना ही लिख देता हूँ। कि यदि वर का नक्षत्र सूर्य मे हो और कन्या का राहू के नक्षत्र मे है तो दोनो मे निश्चित तनाव और विवाद रहेगा भले ही कई गुण मिल रहे हों यहाँं नाड़ी दोष परिलक्षित हो रहा है। विवाह का समय निर्धारण के लिये अनेक पद्धतियां व सूत्र उपलब्ध है। परन्तु किसी मे भी राहू केतु के विशिष्ठ कारकत्व का उल्लेख नही है। यहां तक कि के. पी. पद्धति मे भी इस पर विचार नही किया गया है। अब उदाहरण द्वारा राहू का विवाह मे समय निर्धारण का कारकत्व स्पष्ठ किया जा रहा है।
( अ) जातक का विवरण-
1. जंम तिथी- 01. 10. 1971।
2. नक्षत्र- रेवती-3 ।
3. 3. 35 (प्रातः)
4. स्थान- हरदोई (उ. प्र.)
5. दश का भोग्यकाल- बुध- 8 वर्ष, 5 माह, 7 दिन।
(ब) ग्रहों का विवरण-
1. लग्न- 13. 44. 35। पूर्वा फाल्गुनी-1।
2. सूर्य-17. 33. 57। हस्त -2।
3. चन्द्र-23. 23. 01। रेवती-3।
4. मंगल- 22. 31. 06। श्रवण-4।
5. बुध- 14. 43. 02। हस्त-2।
6. गुरू- 10. 09. 25। अनुरारधा-3।
7. शुक्र- 27. 47. 50। चित्रा- 2।
8. शनि- 12. 53. 26। रोहणी-1।
8. राहू- 19. 24. 08। श्रवण-3।
10. केतु- 19. 24. 08। आश्लेषा-3।
जमांक- सिंह लग्न, कन्या मे सूर्य, बुध, शुक्र, वृश्विक मे गुरू, मकर मे मंगल व राहू मीन मे चन्द्र, वृष मे वक्री शनि, कर्क मे केतु। 
नवांश चक्र -सिंह लग्न, कन्या मे शुक्र, तुला मे गुरू, धनु मे राहू, कुंभ मे चन्द्र, मेष मे शनि, वृष मे बुध, मिथुन मे सूर्य व राहू, कर्क मे मंगल।
 जातक का सप्तमेश शनि दुर्बल है। कारक भी नीच राशि व नवांश मे है। अतः जातक का विवाह काफी विलंब से 12 जून 2007 को हुआ जबकि जातक सम्पन्न परिवार का व्यक्ति है। व उच्च शिक्षा प्राप्त है। विलंब और विवाह की घटना को केवल राहू केतु द्वारा ही बताया जा सकता है। आषा है कि विद्वान दैवज्ञ विवाह के समय निर्धारण मे इन कारको पर ध्यान देंगें। और अप्रत्याशित घटनाओं विवाह समय कर सही जानकारी प्राप्त करेंगें।


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