साधक को मंत्र का प्रभाव कुछ समय तक दृष्टिगोचर नहीं हो पाता

वस्तुतः सिर्फ यक्षिणी के लिए नहीं बल्कि प्रत्येक साधना के लिए चिंतन पूर्ण सात्विक होना ही चाहिए, जब एक सामान्य स्त्री भी आपको देखकर मनोभाव का पता आपकी दृष्टि से लगा लेती है, तो फिर अपार शक्ति सम्पन्न यक्षिणी भला क्यूं कर आपके मनोभाव को नहीं समझ पायेगी, शायद आपको पता नहीं है कि जैसा चिंतन हमारे मन में होता है, तदनुरूप ही साधक के चारो ओर रहने वाला औरा भी हो जाता है भले ही सामान्य मानव अपनी सामान्य दृष्टि से उस औरा को नही देख पाता हो पर जिनकी आकाश दृष्टि और दिव्य दृष्टि जाग्रत होती है, उनसे ये सूक्ष्म परिवर्तन नहीं छिपाया जा सकता है। तामसिक भाव से युक्त होने पर साधक का औरा गहरे घूसर वर्ण का हो जाता है और ये एक ऐसा रंग है जिसमें निकलने वाली दृश्य अथवा अदृश्य रूप से मन को उच्चटित ही करती है और ये किरणें अन्य रंगों की प्रभावी किरणों के मुकाबले कहीं ज्यादा तीव्र गति से संवेदनशील है, जिसके कारण उस प्राणी, मानव या वर्ग को हमसे असुरक्षा का अहसास होता है। अतः उनसे आपको मन से सूक्ष्मतिशूक्ष्म परिवर्तन भी नहीं छुप पाते, अतः साधक को मन के विकारों को दूर करके ही साधना पथ पर बढ़ना चाहिए। साधक का मूल उद्देश्य ही अपने मन को व्यर्थ के भ्रमजाल से मुक्त कर विकार रहित हो अपनी समस्त न्यूनता पर विजय पाकर मानसिक और आत्मिक रूप से स्वतंत्र होना चाहिए। और बात सिर्फ यही नहीं है बल्कि आपका चिंतन एक प्रकार से मौन वार्ता ही है अर्थात शब्द जो की मुख से निकलते है और ईश्वर में परिवर्तित होकर सम्पूर्ण ब्राह्माण के चक्कर लगाते है, ठीक वैसे ही हमारे शरीर का प्रत्येक रोम छिद्र मुख ही है और हमारे मस्तिष्क अथवा हृदय का सम्पूर्ण मनः चिन्तन अतः ब्रहमाण के साथ ब्रहमाड़ को प्रभावित करती है, और ये शक्ति ब्रहम्याण्ड़ीय ही होती है, साधना के द्वारा हम अपनी कल्पना योग कोषाकार योग में परिवर्तित करते है साधक जिस रूप में अपनी साधना इष्ट का ध्यान करता है, उसी ध्यान को संगठित रूप भविष्य में हमारी साधना शक्ति से प्रत्यक्ष होता है। मंत्र मात्र किसी शब्द विशेष का समूह नहीं होता है बल्कि जब सद्गुरू अपने स्वयं के प्राणों से घर्षित कर शिष्य या साधक को मंत्र प्रदान करने वाला दिव्यास्त्र ही हो जाता है, हाँ ये सही है कि साधक के प्रारब्ध के कारण उस पर एक प्रकार का आवरण आ जाता है जिससे साधक को मंत्र का प्रभाव कुछ समय तक दृष्टिगोचर नहीं हो पाता परन्तु जैसे साधक मंत्र जप में अपनी एकाग्रता और समय बढ़ाता जाता है उसका जप प्रगाढ़ होते है वैसे-वैसे वो आवरण शिथिल होते जाता है और अंत में पूरी तरह से नष्ट हो जाता और बाकी रह जाता है तो पूर्ण दैवीप्यामान मंत्र जो साधक के मनोवंछित को प्रदान करने में समर्थ होता है। इसलिए कहा जाता है कि जितना अधिक जप होगा, उतना अधिक आप सफलता के निकट होते जायेंगे।


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