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दीपावली है दीपों के त्योहार

दीपावली एक ऐसा त्योहार है, जिसका इंतजार सभी को वर्ष भर रहता है। प्रकाश का यह त्योहार जहाँ सभी के जीवन में धन-धान्य लाता है वहीं दीपावली के आगमन से कुछ दिनों पूर्व ही बाजार सज-धज जाते हैं और लोग खरीदारी के लिए निकल पड़ते हैं। बच्चों के लिए तो यह त्योहार विशेष रूप से कौतूहल का विषय होता है। नये-नये कपड़े, पटाखे और तरह-तरह की मिठाईयाँ उन्हें खुश कर देती हैं। सब जगह रंग-बिरंगे रोशनी देते बल्बों की लड़ियाँ और एक दूसरो को बधाई देते लोगों का दिखाई पड़ना सचमुच सुखद होता है। दीपावली पर्व, सभी समुदाय के लोग मिल जुलकर मनाते हैं। यही नहीं अब तो दीपावली की धूम विदेशों तक जा पहुंची है, तभी तो ब्रिटेन की संसद और अमेरिका के व्हाईट हाउस में भी लक्ष्मी-गणेश का पूजन करके और दीप जलाकर दीपावली मनाई जाने लगी है। दीपावली एक ऐसा भी त्योहार है, जिसमें घर के बच्चांे से लेकर बड़े-बूढ़े तक बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।        दीपावली धार्मिक ढोंग और रूढ़ियों से दूर अपने आसपास फैले उजाले के प्रति आभार प्रकट करने का त्योहार है। इस त्योहार में अंधेरे से लड़ता प्रत्येक दीया समाज में यही उमंग भरता नज़र आता है कि हम जीवन के झंझावातो

पावन पर्व शुभ दीपावली

दीपावली उत्साह का पर्व है। अधिकतर गं्रथों मंे इस पर्व को दीपावली और कहीं-कहीं दीपमालिका (भविष्योत्तर, अध्याय 14 उपसंहार) की संज्ञा दी हैं वात्स्यायन कामसूत्र 1.4.82 के अनुसार ‘यक्षरात्रि’ तथा राज मार्तण्ड 1346-1348 के आधार पर ‘सुखरात्रि’ कहते हैं। निर्णय सिंधु, काल तत्व विवेचन के अनुसार यह पर्व चतुर्दशी, अमावस्या एवं कार्तिक प्रतिपदा इन तीनों दिनों तक मनाया जाने वाला कौमुदी-उत्सव के नाम से प्रसिद्ध है।    मूलतः दीपोत्सव ‘श्री’ अथवा लक्ष्मी का आवाह्न-पर्व है। लक्ष्मी की चर्चा श्री’ धन-देवी हैं तथा भगवान विष्णु की पत्नी हैं। जब हरि ने बावन रूप धारण किया तो लक्ष्मी पद्म कमल के रूप में अवतरित हुई। जब विष्णु परशुराम के रूप में आए तो लक्ष्मी ‘धरनी’ कहलायीं। राम के साथ सीता तथा कृष्ण के साथ रूक्मिणी बनकर वे सदैव विष्णु की पत्नी बनती आयी है।      पुरातन संस्कृति को जीवित रखने के लिए हम दीपावली का पर्व हर्ष एवं उल्लास के साथ मनाते हैं। वस्तुतः दीपावली का उत्सव 5 दिनों तक, पाँच कृत्यों के साथ मनाया जाता है। धनतेरस अर्थात् धन-पूजा, नरक चतुर्दशी अर्थात् नरकासुर पर विष्णु विजय का उत्सव, लक्ष्मी पूज

माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने का सर्वोत्तम समय है दीपावली का पर्व

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माता लक्ष्मी प्रकृति की एक महान शक्ति है। दीपावली का पर्व प्रकृति के मानवों को प्रदान करने की प्रक्रिया का प्रतीक है। जगत का स्वामी सूर्य भगवान विष्णु है और पृथ्वी माता लक्ष्मी है। तुला राशि में जब सूर्य नीच के होते है और चन्द्र भी तुला में होता है। ऐसी महा अमावस्या की रात भगवान सूर्य अपनी पोषणकारी उर्जा को पृथ्वी पर भेजते है। माता लक्ष्मी अर्थात् पृथ्वी उन वरदानों को प्राप्त कर पृथ्वी के समस्त प्राणियों को वितरित करती है। संसार के सभी धन, धान्य, पशु, पक्षी, रत्न, द्रव्य पदार्थ पृथ्वी के अंग हैं। मानव को सभी संासारिक भोग पृथ्वी से ही प्राप्त होते है। दीपावली का पर्व माता लक्ष्मी ‘पृथ्वी’ को प्रसन्न करके तमाम सांसारिक सम्पदाओं को प्राप्त करने का अमोद्य अवसर और मूर्हत है। जो कि प्रत्येक वर्ष सभी को एक अवसर देता है।    दीपावली का पर्व माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने का सर्वोत्तम समय है। पौराणिक कथानुसार इस दिन माता लक्ष्मी समुद्र मंथन के समय क्षीर सागर से प्रकट हुयी थी। सभी देवताओं और मनुष्यों ने उनकी उपासना की प्राचीन भारतीय साहित्य में कुछ ऐसे पदार्थो का वर्णन है, जिनकी दीपावली की रात पूजा

देवताओं व ऋषियों के साथ देवत्व की स्थापना के लिए हुआ था कृष्ण जन्म

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150 साल पहले की चार्ल्स डार्विन की मानव विकास की थ्योरी हमने हाईस्कूल की जीव विज्ञान की किताब में पढ़कर रट ली कि जीवन की पहली उत्पत्ति का केंद्र जल है। इसी थ्योरी ने हमे बताया कि मानव बनने के पहले अमीबा, पेरामिशियम जैसे कितने चरणों से हम गुजरे। हैरत की बात यह है कि जिस सिद्धांत को हमे हजारों सालों से बताया जाता रहा उसको हमने केवल अपने दुःखों से मुक्ति पाने का आधार मानकर उन्हें देवता माना और उनको मन्दिरों में बैठाकर हम उनकी आडम्बर युक्त पूजा करते रहे और मुख्य तथ्य की तरफ कभी ध्यान ही नही दिया कि वेदों और पुराणों में लिखी इबारत हम केवल रट्टू तोते की तरह दोहराते रहे। जबकि इन इबारतों का अर्थ कितना व्यापक है इसको समझने का कभी प्रयास ही नही किया।  चार्ल्स डार्विन की थ्योरी वास्तव में हमारे वैदिक धर्म की पूरी तरह से नकल है। उनकी थ्योरी जल में पहला जीवन पैदा होने की बात करती है तो वैदिक धर्म में पहला अवतार मत्स्य का है। इसी प्रकार कच्छप, हंस से होते हुए परशुराम यानि जंगल मे रहकर जीवन यापन करने वाले मानव से है। पांचवे अवतार परशुराम के पास जंगल मे रहने के कारण हिंसा ज्यादा है। इसी कारण उनकी विशेष

गुप्तदेश से आयेगा संसार को बचाने वाला मसीहा

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भारत, तिब्बत, मंगोलिया तथा कुछ योरोपियन यात्रियों मे विश्वास पाया जाता है कि मध्य एशिया के हिमालय क्षेत्र के उंचे मैदानी इलाकों मे है। कही एक गुप्त रहस्यमय और भूमिगत अति उन्नत सभ्यता बसी हुयी है, जो उनके शब्दों मे अरागट है। भारत मे उसे कैलास पर्वत व मानसरोवर के कुछ दूर स्थित ज्ञानगंज कहा गया है। कुछ पाश्चात्य लेखकों ने इस देश का नाम शांग्रीला बताया कुछ तिब्बती और मंगोलियन भिक्षुओं, भारतीय साधुओं, तपस्वियों तथा योरोपियन लेखकों ने इस सभ्यता मे यात्रा करने व कुछ दिन बिताने का भी दावा किया है। बौैैैैैद्ध भिक्षुओ ने अरागट तक पहुँचने के लिये एक लंबी सुरंग से गुजरने का भी जिक्र किया है। उनके अनुसार अरागट मे दुःख बीमारी नाम की कोई चीज नही है। वहाँ के निवासियों की आयु पाँच सौ साल तक है। बौद्ध भिक्षुओं के अनुसार एक दिन अरागट की रहस्यमय दुनिया मे एक आदमी प्रकृट होगा वह सारे संसार पर शासन करेगा और बौद्ध दुनिया का बादशाह कहलायेगा लेकिन उसके प्रकृट होने से पूर्व संसार मे भयानक अशुभ घटनायें घटेगीं। बौद्ध भिक्षु उन घटनाओ की भविष्यवाणी कुछ इस प्रकार करते है। भाई-भाई के खून का प्यासा होगा इंसान अपनी आत्

आनलाइन रोजा इफ्तार का आयोजन

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विगत वर्षों की परम्पराओं का पालन करते हुए सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ के सभी कैम्पसों द्वारा इस वर्ष भी लाॅकंडाउन के दौरान आनलाइन रोजा इफ्तार का आयोजन नियमित तौर पर किया जा रहा है, जिसमें बड़ी संख्या में छात्र, अभिभावक एवं विभिन्न धर्मानुयायी आॅनलाइन एकत्रित होकर न सिर्फ लखनऊ की गंगा-जमुनी तहजीब का परचम लहरा रहे हैं अपितु पवित्र कुरान की आयतों को सस्वर गान कर पूरे देश में अमन, भाईचारा, सामाजिक सौहार्द, एकता व शान्ति की कामना कर रहे हैं। इसी कड़ी में सी.एम.एस. राजेन्द्र नगर (प्रथम कैम्पस) द्वारा आॅनलाइन रोजा इफ्तार का आयोजन किया गया जिसमें इस्लामिक सेंटर आॅफ इण्डिया के अध्यक्ष एवं ईदगाह के इमाम मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे। इसके अलावा, सी.एम.एस. अलीगंज, राजाजीपुरम, आर.डी.एस.ओ. आदि विभिन्न कैम्पसों द्वारा नियमित रूप से रोजा इफ्तार का आयोजन किया जा रहा है।  सी.एम.एस. संस्थापक व प्रख्यात शिक्षाविद् डा. जगदीश गाँधी ने कहा कि मोहम्मद साहब की तरह अपनी इच्छा नहीं वरन् खुदा की इच्छा व आज्ञा का पालन करना चाहिए। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि सर्वधर्म समभाव एवं सभी

रोजे से पैदा होता है इर्श-परायणता के गुण

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रमजान का महीन इस्लामिक मान्यता के अनुसार सबसे पवित्र और इबादत का सबसे खास महीना है, इसकी इबादत पूर्ण करने वालों के लिए अल्लाह की तरफ से ईद की खुशी अता की गई है। धार्मिक विधान के अनुसार रमजान की शुरूआत उस समय तक नहीं हो सकती, जब तक संतोषप्रद तरीके से यह मालूम न हो जाए कि रमजान का महीना शुरू हो चुका है और समाप्त भी उस समय तक नहीं हो सकता जब तक ईद का चांद न देख लिया जाए। रमजान का महीना जब से शुरू हो और जब तक रहे हर मुसलमान को उसके रोजे रखने चाहिए। रमजान एक कमरी यानी चांद वाला महीना है, जो चांद के दिखने पर निर्भर करता, इसके बारे में नबी का स्पष्ट संदेश मौजूद है, जिसमें कहा गया है कि चांद देखकर रोजे रखो और चांद देखकर ही रोजे खत्म करो। लेकिन आसमान साफ न हो तो तीस रोजे की गिनती पूरी करो। अगर चांद दिखने के समय आसमान में बदली छाई हुई है, बदली और चांद की लुका-छिपी के दौरान एक झटके मे चांद दिख जाए और एक-दुक्का लोग ही देख पाए हों। तब उस शहर के काजी से सामने उनकी गवाही होगी, गवाह ऐसे हों जिन पर यकीन किया जा सके, तब शहर काजी ईद का ऐलान कर सकते हैं। यहां यह भी बहुत महत्वपूण है कि जिस जिले या शहर में

पांडव और कौरव

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पाण्डव पाँच भाई थे जिनके नाम हैं - 1. युधिष्ठिर    2. भीम    3. अर्जुन  4. नकुल   5. सहदेव (इन पांचों के अलावा, महाबली कर्ण भी कुंती के ही पुत्र थे, परन्तु उनकी गिनती पांडवों में नहीं की जाती है) यहाँ ध्यान रखें पाण्डव के उपरोक्त पाँचों पुत्रों में से युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की माता कुन्ती थीं तथा नकुल और सहदेव की माता माद्री थी । वहीँ ३. धृतराष्ट्र और गांधारी के सौ पुत्र.. कौरव कहलाए जिनके नाम हैं - 1. दुर्योधन      2. दुःशासन   3. दुःसह  4. दुःशल        5. जलसंघ    6. सम   7. सह            8. विंद         9. अनुविंद   10. दुर्धर्ष       11. सुबाहु।   12. दुषप्रधर्षण    13. दुर्मर्षण।   14. दुर्मुख     15. दुष्कर्ण      16. विकर्ण     17. शल       18. सत्वान    19. सुलोचन   20. चित्र       21. उपचित्र  22. चित्राक्ष     23. चारुचित्र 24. शरासन  25. दुर्मद।       26. दुर्विगाह  27. विवित्सु   28. विकटानन्द 29. ऊर्णनाभ 30. सुनाभ    31. नन्द।        32. उपनन्द   33. चित्रबाण    34. चित्रवर्मा    35. सुवर्मा    36. दुर्विमोचन    37. अयोबाहु   38. महाबाहु  39. चित्रांग 40. चित्रकुण्डल41.

रामायण जीवन जीने की सबसे उत्तम शिक्षा देती है

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भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ तो उनकी पत्नी माँ सीता ने भी सहर्ष वनवास स्वीकार कर लिया। परन्तु बचपन से ही बड़े भाई की सेवा मे रहने वाले लक्ष्मण जी कैसे राम जी से दूर हो जाते! माता सुमित्रा से तो उन्होंने आज्ञा ले ली थी, वन जाने की., परन्तु जब पत्नी उर्मिला के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो सोच रहे थे कि माँ ने तो आज्ञा दे दी, परन्तु उर्मिला को कैसे समझाऊंगा! क्या कहूंगा! यहीं सोच-विचार करके लक्ष्मण जी जैसे ही अपने कक्ष में पहुंचे तो देखा कि उर्मिला जी आरती का थाल लेके खड़ी थीं और बोलीं, आप मेरी चिंता छोड़ प्रभु की सेवा में वन को जाओ। मैं आपको नहीं रोकूँगीं। मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा न आये, इसलिये साथ जाने की जिद्द भी नहीं करूंगी। लक्ष्मण जी को कहने में संकोच हो रहा था। परन्तु उनके कुछ कहने से पहले ही उर्मिला जी ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया। वास्तव में यहीं पत्नी का धर्म है। पति संकोच में पड़े, उससे पहले ही पत्नी उसके मन की बात जानकर उसे संकोच से बाहर कर दे। लक्ष्मण जी चले गये परन्तु 14 वर्ष तक उर्मिला ने एक तपस्विनी की भांति कठोर तप किया। वन में भैया-भाभी की सेवा में लक्ष्मण जी क

रामायण में भोग नहीं, त्याग है

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भरत जी नंदिग्राम में रहते हैं, शत्रुघ्न जी  उनके आदेश से राज्य संचालन करते हैं। एक रात की बात हैं, माता कौशिल्या जी को सोते में अपने महल की छत पर किसी के चलने की आहट सुनाई दी। नींद खुल गई। पूछा कौन हैं? मालूम पड़ा श्रुतिकीर्ति जी हैं। नीचे बुलाया गया। श्रुतिकीर्ति जी, जो सबसे छोटी हैं, आईं, चरणों में प्रणाम कर खड़ी रह गईं। माता कौशिल्या जी ने पूछा, श्रुति! इतनी रात को अकेली छत पर क्या कर रही हो बिटिया? क्या नींद नहीं आ रही? शत्रुघ्न कहाँ है? श्रुतिकीर्ति की आँखें भर आईं, माँ की छाती से चिपटी, गोद में सिमट गईं, बोलीं, माँ उन्हें तो देखे हुए तेरह वर्ष हो गए। उफ! कौशल्या जी का ह्रदय काँप गया। तुरंत आवाज लगी, सेवक दौड़े आए। आधी रात ही पालकी तैयार हुई, आज शत्रुघ्न जी की खोज होगी, माँ चली। आपको मालूम है शत्रुघ्न जी कहाँ मिले? अयोध्या जी के जिस दरवाजे के बाहर भरत जी नंदिग्राम में तपस्वी होकर रहते हैं, उसी दरवाजे के भीतर एक पत्थर की शिला हैं, उसी शिला पर, अपनी बाँह का तकिया बनाकर लेटे मिले। माँ सिराहने बैठ गईं, बालों में हाथ फिराया तो शत्रुघ्न जी ने आँखें खोलीं, माँ! उठे, चरणों में गिरे, माँ! आपन

नवरात्रि का आठवा दिन माँ महागौरी की पूजा-अर्चना

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माँ महागौरी ने देवी पार्वती रूप में भगवान शिव को पति-रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी, एक बार भगवान भोलेनाथ ने पार्वती जी को देखकर कुछ कह देते हैं। जिससे देवी के मन का आहत होता है और पार्वती जी तपस्या में लीन हो जाती हैं। इस प्रकार वषों तक कठोर तपस्या करने पर जब पार्वती नहीं आती तो पार्वती को खोजते हुए भगवान शिव उनके पास पहुँचते हैं वहां पहुंचे तो वहां पार्वती को देखकर आश्चर्य चकित रह जाते हैं। पार्वती जी का रंग अत्यंत ओजपूर्ण होता है, उनकी छटा चांदनी के सामन श्वेत और कुन्द के फूल के समान धवल दिखाई पड़ती है, उनके वस्त्र और आभूषण से प्रसन्न होकर देवी उमा को गौर वर्ण का वरदान देते हैं। एक कथा अनुसार भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए देवी ने कठोर तपस्या की थी जिससे इनका शरीर काला पड़ जाता है। देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान इन्हें स्वीकार करते हैं और शिव जी इनके शरीर को गंगा-जल से धोते हैं तब देवी विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान गौर वर्ण की हो जाती हैं तथा तभी से इनका नाम गौरी पड़ा। महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं। देवी के इस रूप की प्रार

नवरात्र के सातवें दिन माँ कालरात्रि की आराधना

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माँ दुर्गा की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। दुर्गा पूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि लनेकी उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन सहस्रार चक्र में स्थित रहता है। इसके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खु लगता है। देवी कालात्रि को व्यापक रूप से माता देवी, काली, महाकाली, भद्रकाली, भैरवी, मृित्यू, रुद्रानी, चामुंडा, चंडी और दुर्गा के कई विनाशकारी रूपों में से एक माना जाता है। रौद्री और धुमोरना देवी कालात्री के अन्य कम प्रसिद्ध नामों में हैं। ऐसा माना जाता है कि देवी के इस रूप में सभी राक्षस, भूत, प्रेत, पिसाच और नकारात्मक ऊर्जाओं का नाश होता है, जो उनके आगमन से पलायन करते हैं। इनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रह्मांड के सदृश गोल हैं। इनसे विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं। महिमा:- माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है, लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम श्शुभंकारीश् भी है। अतः इनसे भक्तों को

यौगिक सिद्धियाँ

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प्राचीनकाल में गार्गी, मैत्रेयी, मदालसा, अनसूया, अरुन्धती, देवयानी, अहल्या, कुन्ती, सतरूपा, वृन्दा, मन्दोदरी, तारा, द्रौपदी, दमयन्ती, गौतमी, अपाला, सुलभा, शाश्वती, उशिजा, सावित्री, लोपामुद्रा, प्रतिशेयी, वैशालिनी, बैंदुला, सुनीति, शकुन्तला, पिङ्गला, जरुत्कार, रोहिणी, भद्रा, विदुला, गान्धारी, अञ्जनी, सीता, देवहूति, पार्वती, अदिति, शची, सत्यवती, सुकन्या, शैव्या अदि महासतियाँ वेदज्ञ और गायत्री उपासक रही हैं। उन्होंने गायत्री शक्ति की उपासना द्वारा अपनी आत्मा को समुन्नत बनाया था और यौगिक सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उन्होंने सधवा और गृहस्थ रहकर सावित्री की आराधना में सफलता प्राप्त की थी। इन देवियों का विस्तृत वृत्तान्त, उनकी साधनाओं और सिद्धियों का विर्णन करना यहाँ सम्भव नहीं है। जिन्होंने भारतीय पुराण-इतिहासों को पढ़ा है, वे जानते हैं कि उपर्युक्त देवियाँ विद्वत्ता, साहस, शौर्य, दूरदर्शिता, नीति, धर्म, साधना, आत्मोन्नति आदि पराक्रमों में अपने ढंग की अनोखी जाज्वल्यमान तारिकाएँ थीं। उन्होंने समय-समय पर ऐसे चमत्कार उपस्थित किये हैं, जिन्हें देखकर आश्चर्य में रह जाना पड़ता है। प्राचीनकाल में सावित

राम के विवाह, धनुष यज्ञ और वन लीला की कथा

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रिफार्म क्लब में चल रहे तीन दिवसीय आध्यामिक पर्व मानस संत सम्मेलन के दूसरे दिन जगद्गुरू रामानंदाचार्य श्रीश्री 108 स्वामी रामस्वरूपाचार्य चित्रकूट मध्य प्रदेश ने अपने प्रवचन में भगवान श्रीराम के वन लीला पर प्रकाश डालते हुए भगवान श्रीराम को मनी और लक्ष्मण जी जो कि शेषनाग के अवतार थे। उन्हें फनी के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया। क्योंकि मनी को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी फनी को ही है।  श्रीराम को अयोध्या का राजा घोषित करने के उपरान्त राजतिलक की तैयारियां जब जोरो से चल रही थी तभी महारानी केकई के प्रस्ताव पर नहीं चाहते हुए भी राम के पिता दशरथ ने श्रीराम को वन जाने के लिए आदेशित किया। इस पूरे क्रम को महाराजश्री ने बड़े ही मार्मिक ढंग से सुधी श्रोताओं को समझाने का प्रयास किया। जगद्गुरू ने कहा कि श्रीराम को सबसे ज्यादा प्यार माता केकई करती थी। माता केकई जब भगवान सूर्य को जलाभिषेक करती थी तो श्रीराम को यशस्वी बनाने के लिए प्रार्थना करती थी। पिता दशरथ से जब महर्षि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को मांगने आये तो दशरथ जी ने कहा था कि मुनिवर आप मेरे प्राण मांगे तो मुझे देने में कोई आपत्ति नहीं ह

नैन नचाइ, कही मुसकाइ लला फिरी अइयो खेलन होरी

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फाग के भीर अभीरन में गहि गोविन्दै लै गई भीतर गोरी। भाई करी मन की पद्माकर ऊपर नाई अबीर की झोरी। छीन पिताम्बर कम्मर ते सु बिदा दई मीड़ कपालन रोरी। नैन नचाइ, कही मुसकाइ लला फिरी अइयो खेलन होरी।।  होली वसंत ऋतु में फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार  होली वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारम्भ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेंहू की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियां भूलकर ढोलक-झांझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूलकर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक-दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठ

सत्य का वास्तविक स्वरूप

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सत्य का साक्षात्कार करते हुए हमें आंतरिक सत्संग करना है! सत्संग से अभिप्राय मन में लौटना है! अपने भीतर ईश्वर के रूप में स्थित सत्य को जानना है! ईश्वर के प्रकाश के निकट होना है, मन की चंचलता को रोक देना है तथा मन की मैल दूर करते हुए स्वयं के दर्शन करने हैं! यही सच्चे अर्थों में सत्संग है! यही सत्य का वास्तविक स्वरूप है। सत्संग से अभिप्राय सत्य का संग है या फिर ऐसे महापुरुषों का सान्निध्य है, जिनका जीवन आदर्श है। ऐसे महापुरुषों का प्रवचन जो भौतिक जीवन से मन को हटाकर भीतर आत्मिक प्रकाश की और जाने की प्रेरणा देते हैं, यही वास्तविक सत्संग कहलाता है। तथा, उनका संग करने से मानसिक तथा आध्यात्मिक बल प्राप्त होता है और आत्मविश्वास बढ़ता है। सत्संग आंतरिक दृढ़ता और आत्मविश्वास से जुड़ा हुआ भाव है। जब हम सत्संग में होते हैं तब हम चैतन्य होते हैं, हमारा विवेक और अंतःकरण के सभी द्वार खुलने लगते हैं और हम जीवन की भौतिक लालसाओं से सहज मुक्त होकर ईश्वरीय आलोक में निवास करते हैं। सत्संग हमें सत्य का साक्षात्कार करवाता है। सत्य वैसी ही सूक्ष्म भाव है, जैसा कि ईश्वर, ईश्वर का अनुभव आंतरिक प्रकाश में किया जा

नवरात्र का महत्व

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सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति में नवरात्र का अपना अलग ही महत्व है। शिव और शक्ति की उपासना भारत मे आदि काल से ही की जाती है। भगवान शिव सूर्य और शक्ति पृथ्वी की प्रतीक है। भारतीय ज्योतिष मे नवरात्रि एक आकाशीय घटना है। कन्या राशि माता दुर्गा की प्रतीक है। और कुंभ राशि महिषासुर का प्रतीक है। नवरात्रि का पर्व दुर्गा जी की उपासना हेतु मनाया जाता है। जो माता पार्वती का ही एक रूप है। नवरात्रि के नौ दिनों में माता पार्वती के ही नौ विभिन्न रूपों का पूजन किया जाता है। नवरात्रि पूजन की अनेक विधियों समाज में प्रचलित हैं। नवरात्रि मे लोेग तंात्रिक और सात्विक तरीको से माता दुर्गा का पूजन करते हैं। तांत्रिक लोग बलि आदि देते है। और सात्विक लोग अपनी सुविधा के अनुसार नौ दिन या पहली व आखिरी नवरात्रि का व्रत करते है और पहले दिन कलश की स्थापना करके नौ दिन तक दुर्गा सप्तशती का पाठ करते है। अष्ठमी को दुर्गा जी का हवन करके नवमी को नौ कुंवारी कन्याओं और एक बालक का लंगूर स्वरूप का पूजन करके उनको भोजन कराते हैं। इनमें पूरी, सब्जी, हलवा या दही, जलेबी की परम्परा है। दुर्गा पूजन की विधि का सविस्तार से वर्णन दुर्गा स

निष्काम कर्म को ही सेवा कहेंगे

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सेवा और भक्ति वस्तुतः दो वस्तुयें नहीं हैं, वे एक-दूसरे के पूरक हैं, एक-दूसरे पर आश्रित हैं। प्रेम जब मन और वाणी से उतर कर आता है, तो उसे सेवा रूप में देखा जाता है। सच्चा प्रेम वह है, जो केवल शब्दों से ही मधुरता न टपकाता रहे, वरन् अपने प्रेमी के दुःख-दर्द में कुछ हाथ भी बटाये। कर्त्तव्य पालन में कष्ट स्वाभाविक है। कष्ट को अपेक्षित करके भी जो कर्त्तव्य पालन कर सकता हो, सच्ची सेवा का पुण्य फल उसे ही प्राप्त होता है। माता अपने बेटे के लिए कितना कष्ट सहती है, पर बदले में कभी कुछ नहीं चाहतीय यही सेवा का सच्चा स्वरूप है। इसमें देना ही देना है, पाना कुछ नहीं है। जो अपना सब कुछ न्यौछावर कर सकते हों, उन्हीं को तो परमात्मा का सान्निध्य सुख प्राप्त करने का सौभाग्य मिलता है। परिवार की देखभाल, स्वजनों के पालन-पोषण की व्यवस्था, बालकों को शिक्षित एवं विकसित बनाना यह सब सेवा कार्य ही हैं। किन्तु यह कार्य करते हुए अहं-भावना नहीं आनी चाहिए। निष्काम कर्म को ही सेवा कहेंगे। जिससे अपना स्वार्थ सधता हो, वह कभी सेवा नहीं हो सकती। व्यक्तिगत और पारिवारिक क्षेत्र से ही मनुष्य आगे की उत्कृष्ट सेवा का आधार बनाता