कुछ यादगार-ए-शहर-ए-सितमगर ही ले चले आए है इस गली में

सौ पुस्तके पढ़ने से अच्छा हैं आप सौ मील की यात्रा कर आयें इस चीनी कहावत के मर्म को समझकर दुनियाँ भर के यायावर निरन्तर ज्ञान की खोज में भ्रमण करते रहे है। रमता जोगी बहता पानी, आज यहाँ तो, कल वहाँ ताकि घरघुस्सू का तमगा न लगे। तीर्थ यात्रा की परिकल्पना के पीछे भी यही भावना परिलक्षित होती है। इबन बतूता के घुमक्कड़ी स्वभाव के कारण उन पर कई गीत तक लिखे गये जो यायावर जिन्दगी के प्रतीक बन गये है। इन यात्राओं में बार-बार भूख और फटेहाली सामने आकर खड़ी हो जाती, कई बार किसी यायावर को पेड़ के नीचे या फूटपाथ पर भूखा सोना पड़ता था, इन यात्रियों ने मेहनत-मजदूरी करके आगे की यात्रा जारी रखी। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में युह-ची कबीले की एक शाखा, कुषाणों ने जब यहाँ अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया तो भारत और चीन के बीच व्यापारिक-सांस्कृतिक सबंध घुमक्कड़ो के कारण बने।      
 ईसा पूर्व काल से लेकर 1000ई. तक भारत आये यात्रियों पर निगाह डालें तो उनमें अधिकतर यूनान, चीन, अरब, ईरान, तिब्बत आदि मुल्कों से आये थे। ये लोग मुख्यतः धर्म-जिज्ञासु अथवा ज्ञान-पिपासु थे। थेाडे़ से उनमें दूत-कर्म अथवा सैन्य संचालन से जुड़े अधिकारी भी थे। ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर सातवीं शती के दूसरे दशक में भारत आये एक तिब्बती अध्येता-यात्री थोन्मी संभोट का उल्लेख किया जाना जरुरी है। इस यात्रा के पश्चात् वे ज्ञान का जो भंडार लेकर वापिस तिब्बत लौटे, उसने तिब्बत के सांस्कृतिक स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया था। थोन्मी संभोट को हर्षवर्धन के आंशिक रूप से समकालीन रहे तिब्बत के प्रतापी राजा स्त्रांग त्सान गाम्पो (629-650 ई0) ने भारत भेजा था। थोन्मी जब लौट कर वापिस तिब्बत पहुँचे तो न सिर्फ कई बौद्ध ग्रंथ, बुद्ध मूर्तियों व पश्चिमी गुप्त लिपि (जो देवनागरी लिपि का एक स्वरूप थी तथा बाद में चलकर तिब्बती लिपि का मूल आधार बनी) उनके साथ थी, बल्कि वे स्वयं भी बुद्धमय हो चुके थे। राजा गाम्पो थोन्मी से इतने प्रभावित हुए कि उन्हंे गुरू स्वीकारते हुए बौद्ध धर्म को स्वीकार लिया और उसके बाद तिब्बत के सांस्कृतिक-धार्मिक परिदृश्य में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया। इत्सिंग एक चीनी यात्री और बौद्ध भिक्षु था, जो 675 ई. के समय सुमात्रा होकर समुद्र के मार्ग से भारत आया था। इत्सिंग ने नालन्दा एवं विक्रमशिला विश्वविद्यालय तथा उस समय के भारत पर प्रकाश डाला है। इत्सिंग 10 वर्षों तक नालन्दा विश्वविद्यालय में रहा था। उसने वहाँ के प्रसिद्ध आचार्यों से बौद्ध धर्म के ग्रन्थों को पढ़ा। 691 ई. में इत्सिंग ने अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ भारत तथा मलय द्वीपपुंज में प्रचलित बौद्ध धर्म का विवरण लिखा। इस ग्रन्थ से हमें उस काल के भारत के राजनीतिक इतिहास के बारे में जानकारी के साथ बौद्ध   धर्म और साहित्य के इतिहास के समझना आसान होता है। भारत की ओर कदम बड़ाने वाले लोगांे में 7वीं शती में बुद्ध-प्रभामंडल से खिंचे ह्वेन त्सांग का नाम आता है। चीन से बीहड़, दुर्गम रास्तों को पार कर दस हजार किलोमीटर से भी अधिक की यात्रा कर भारत आये थे। सुप्रसिद्ध लेखक मीमांसक ने अपने लेख में बड़े विस्तार से यायावर लोगों के बारे में जानकारी कुछ इस प्रकार दी है। बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए सम्राट अशोक ने यूनान एवं मिस्र श्रीलंका, दक्षिण पूर्व एशिया, चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत तथा मंगोलिया के लिए भी बौद्ध-भिक्षुओं को भेजा था। स्वयं उनके बेटे और बेटी भी धर्म प्रचारक बन कर गये थे।      ग्यारहवीं से लेकर चैहहवीं शती में यात्री मुख्य रूप से अरब, तिब्बत, चीन, ईरान, अफ्रीका आदि इलाकों से आये। इस काल में हमें जर्मन, रूसी, इतावली, चेक आदि यात्रियों के आने की शुरूआत होती भी दीखती है। चैहदवीं शती यूरोप के लिए रेनांसां का आरंभिक दौर था औपनिवेशिक विस्तारवाद की ललक के कारण पंद्रहवीं, सोलहवीं शती में पश्चिमी देशों, में पुर्तगाल, इटली, रूस, पोलैंड, जर्मनी, इंग्लैंड, फ्रांस, हाॅलैंड आदि देशों से यात्रियों का आगमन एकाएक बढ़ जाता है। चीन, ईरान, अफगानिस्तान जैसे एशियाई मुल्कों से भी यात्रियों का आना यहाँ बना हुआ था। भारत के दो क्षेत्रों गोवा और दमन एवं दीव द्वीपों को तो 16वीं शती के पहले दो दशकों में ही पुर्तगालियों ने अपने अधीन कर लिया था।  
अठारहवीं शती तक पहुँचते-पहुँचते भारत ब्रिटिश उपनिवेशवाद का एक प्रमुख गंतत्व (डेस्टिनेशन) बन चुका था। इस शती में आये तकरीबन सत्तर से ऊपर यात्रियों को मेरे पास जो सूची उपलब्ध है उनमें से 40 नाम तो सिर्फ इंग्लैंड के है। फ्रांस, जर्मनी, इटली, रूस, हाॅलैंड आदि देशों के भी यात्री इस दौर में आये। भारत मंे यायावर की जिन्दगी जीते हुए राहुल सांस्कृतयान ने तिब्बत, चीन, श्रीलंका सहित अनेक देशों के अलावा सम्पूर्ण भारत को अपने कदमों से नाप डाला इसी दिशा में साहित्यकार देवेन्द्र सत्यार्थी ने बैलगाड़ी में बैठकर पूरे देश की यात्रा करनी चाही थी यह काम उन्होंने कभी बस से तो कभी ट्रेन से किया तो कभी बैलगाड़ी में बैठकर पूरब से पश्चिम तक उत्तर दक्षिण तक घुमक्कड़ी करते हुए लोक साहित्य और लोकगीतों की अनमोल विरासत को सहेजकर दुनिया के सामने लाने में कामयाबी लाने वाले सत्यार्थी जी पाकिस्तान की यात्रा पर गये तो बगैर घरवालों को बताये पंडित नेहरू की पहल पर पाकिस्तान में भारत के राजदूत ने वापिस उन्हें हिन्दुस्तान बुलाया था। भारतीय संस्कृति मंे चार ज्योतिलिंग पीठ देश के चारों कोनों में होने के पीछे भी घुमक्कड़ यात्रा से ज्ञान वर्धन ही उद्देश्य रहा है। बुद्ध महावीर, कबीर, नानक निरन्तर घूमते रहे। मोहनदास कर्मचन्द गांधी के महात्मा गांधी बनने का सारा सफर भारत भ्रमण के बाद भी हुआ। आचार्य बिनोवा भावे ने भूदान आन्दोलन के माध्यम से सारे हिन्दुस्तान को पदयात्रा के माध्यम से नापडाला आधुनिक आजादी के बाद के दौर में पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर, पूर्व केन्द्रीय मंत्री व फिल्म अभिनेता सुनील द़त्त ने यात्र के माध्यम से भारत को जोड़ने का काम किया है। यात्रा करना सिर्फ एक वैक्रिकृत नही है। इसके पीछे समाज के दर्शन उसकी वास्तविकताओं सांस्कृतिक इतिहास की तहकीकात के साथ उसे अनुभव करने का सबसे सुगम और सरल माध्यम है। पाईथा गोरस लगभग 580 ईसा सदी पूर्व भारत आकर यहां के दर्शन का अध्ययन करके अपने देश लौटा था। छठी सती ईसा पूर्व में कैरियांडा के इतिहासकार स्काईलैक्स भारत के पश्चिमी प्रान्त में यात्री कें रूप में उनके द्वारा लिखा गया विवरण इतिहास के पन्नों में आज भी सुरक्षित है। इस विवरण को भारत का पहला विवरण माना जाता है। ग्रीक शासक तोल्मी ने अपने दूत डायनोनीसियस को मौर्य सम्राट बिन्दुसार के पास भेजा था। मौर्यकाल में अनेक विदेशी दूत भारत आये लेकिन उनके नाम इतिहास के पन्नों से गायब हो गये। अरबी यात्री अलमसूदी ने प्रतिहार राजा महिपाल के दौर में भारत की यात्रा की थी । उन्होंने अपने यात्रा का विवरण मुरूजुलजहाब के नाम से लिखा है। इस पुस्तक में राजा महिपाल के राजशाही मंे उपयोग होने वाले हाथी, घोड़े तथा ऊटों की चर्चा की है। भारत आने वाले प्रमुख यात्रियों में 11वीं शती में अरब से अलबरूनी 13वीं शती में चीन से चाउ-जू-कुआ, ईरान से शेख सादी, बुखारा से मोहम्मद अंजी, इटली से मार्कोपोलो, 14वीं शती में मोरक्को से इब्न बतूता, चीन से वांग ता युआन, ईरान से कवि हाफिज, इटली से आडेरिको द पोर्डनन, 15 वीं शती में इटली से निकालो द कोंती, रूस से अफनासी निकितिन, पुर्तगाल से वास्को डि गामा, चीन से चेंग हो, ईरान से शेख अजूरी, समरकंद से कमालुद्दीन अब्दुर रज्जाक, पुर्तगाल से पेड्रो द कोविल्हा, पोलैंड से गास्पर द गामा आदि यात्री भारत आये रूस यात्री अफनासी निकितिन ने अपने यात्रा विवरण में तत्तकालीन भारत की सामाजिक आर्थिक स्थतियों का बड़ा अच्छा विवरण दर्ज किया है।इन यात्रीयो में प्रमुख है, फरिश्ता (1570-1612 ई) एक प्रसिद्ध मुस्लिम इतिहासकार थे फरिश्ता काफी समय तक बीजापुर में रहे, उन्हे इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय का संरक्षण मिला था। फरिश्ता ने भारत के इतिहास पर अपनी एक पुस्तक भी लिखी थी, जो तारीख-ए-फरिश्ता के नाम से प्रसिद्ध हुई। ब्रिग्स ने उसकी पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद किया भारत में मुसलमानी शक्त्ति के विकास का इतिहास नाम से किया है।   16वीं शती में हालैंड के जाॅन हयूगेन लिंशोटन, इंग्लैंड के राल्फफिच तथा जाॅन माइल्डेन हाॅल का नाम उल्लेखनीय है। जाॅन माठल्डेन हाॅल ने सम्राट अकबर और उनके बेटे जहाँगीर से व्यापारिक सुविधायें हासिल करने की असफल कोशिश की थी। सोने की चिड़िया के तौर पर दुनियाँ भर में भारत का नाम रोशन करके इन यात्रियों ने एक ऐसा वातावरण बनाया कि लोग भारत के रहस्य को जानने के लिए खिचे चले आये। भारती मसालों की सुगन्ध से यहूदी व्यापारी मालवार तट पर आये और बाद में यहीं बसने लग गये। दक्षिण भारत के तट पर मसालों के व्यापार के रोचक किस्से मार्को पोलो की पुस्तक पर सचित्र मौजूद है।      मैगस्थनीज को अपने समय का एक बेहतरीन विदेशी यात्री और यूनानी भूगोलविद माना जाता था। मैगस्थनीज ने इण्डिका में भारतीय जीवन, परम्पराओं, रीति-रिवाजों का वर्णन किया है। चंद्रगुप्त मौर्य एवं सेल्युकस के मध्य हुई संधि के अंतर्गत, जहां सेल्यूकस ने अनेक क्षेत्र एरिया, अराकोसिया, जेड्रोशिया, पेरापनिसदाई आदि चन्द्रगुप्त को प्रदान किये, वहीं उसने मैगस्थनीज नामक यूनानी राजदूत भी मौर्य दरबार में भेजा। शानबैक ने 1846 में इस ग्रंथ के बिखरे हुए अंशों को मैगस्थनीज इण्डिका नामक शीर्षक ग्रंथ में संग्रहित किया। उसने भारत की आकृति को अनियमित सम चतुर्भुज के समान बताया, जिसका पूर्व से पश्चिम की ओर विस्तार 28,000 स्टेडिया एवं उत्तर से दक्षिण की ओर विस्तार 32,000 स्टेडिया था। मैगस्थनीज ने गंगा नदी एवं सिंधु नदी का जिक्र अपने ग्रंथ में किया है और साथ ही कुल भारतीय नदियों की संख्या 58 बतायी है। उसने सिलास नामक एक ऐसी नदी का उल्लेख किया है, जिसमें कुछ भी तैर नहीं सकता था। मैगस्थनीज के अनुसार भारत में चीटियां सोने का संग्रह करती थीं। पशुओं में मैगस्थनीज भारतीय हाथी से काफी प्रभावित था। पक्षियों में तोते के बारे में मैगस्थनीज का कहना है कि, ये बच्चों की तरह बातें करते थे। मैगस्थनीज के अनुसार मौर्य काल में बहुविवाह प्रथा का प्रचलन था। षिक्षा व्यवस्था ब्राह्मण करते थे।  दास प्रथा का प्रचलन नहीं था। मैगस्थनीज ने भारतीय लोगों की ईमानदारी की प्रशंसा करते हुए कहा कि चोरी प्रायः नहीं होती थी। मेगस्थनीच ने भारतवासियों की धार्मिक भावना पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि, यहां के लोग ष्डायोनियस (शिव) एवं हेराक्लजी (विष्णु) की उपासना करते थे।    मैगस्थनीज ने अपनी यात्रा के विवरण में पाटलिपुत्र का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया है। पाटलिपुत्र को पालिब्रोथा नाम से        सम्बोधित किया है। अलमसूदी अरब का विद्वान था। 915-916 ई. में वह भारत की यात्रा करने वाला बगदाद का विदेषी यात्री था। गुर्जर प्रतिहार वंश के शासक महिपाल (910-940 ई.) के शासन काल के दौरान गुजरात आया था। गुर्जर प्रतिहारों को अलगुर्जर एवं राजा को बौरा कहा था। अपनी भारत यात्रा के समय अलमसूदी राष्ट्रकूट एवं प्रतिहार शासकों के विषय में जानकारी देता है। जीन बैप्टिस्ट टॅवरनियर बादशाह शाहजहाँ के शासनकाल में भारत आया था। यह अपने समय का एक ख्याति-प्राप्त फ्रांसीसी यात्री था। उसने भारत की छः बार यात्रा की थी। जवाहरात तथा मोतियों के बारे में अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथा विशुद्ध विवरण उसने प्रदान किये हैं। टॅवरनियर ने मुगल सामन्त शाइस्ता खाँ आदि के चरित्र-चित्रण भी प्रस्तुत किये थे। उसके उल्लेखों से मुगलकालीन शासन व्यवस्था की वास्तविक तथा सही जानकारी प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त मथुरा के केशोराय पाटन तथा काशी के केशव मंदिर का भी रोचक उल्लेख उसने किया है।    फ्रेंसिस बर्नियर सत्रहवीं सदी में फ्राँस से भारत आया था। उस समय भारत पर मुगलों का शासन था। बर्नियर के आगमन के समय मुगल बादशाह शाहजहाँ अपने जीवन के अन्तिम चरण में थे और उनके चारों पुत्र भावी बादशाह होने के मंसूबे पूरे करने में जुटे हुए थे। बर्नियर की भारत यात्रा पुस्तक में बर्नियर द्वारा लिखित यात्रा का वृत्तांत उस काल के भारत की छवि हमारे समक्ष उजागर करता है। बर्नियर दिल्ली में उस समय मौजूद था, जब दारा शिकोह को राजधानी की सड़कों पर घुमाया जा रहा था और औरंगजेब के सैनिक उसे घसीट रहे थे। शाहजादा दारा के पीछे-पीछे भारी भीड़ चल रही थी, जो कि उसके दुर्भाग्य पर विलाप कर रही थी। फिर भी भीड़ में से किसी व्यक्ति को अपनी तलवार निकालकर दारा को छुड़ाने का साहस नहीं हुआ।      अथनासियस निकितिन रूसी व्यापारी था, 1470 से 1474 ई. तक दक्षिण के बहमनी राज्य में भ्रमण विवरणों से तत्कालीन भारतीय इतिहास की महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। निकितिन के विवरण के अनुसार दक्षिण में साधारण मनुष्यों की स्थिति काफी दयनीय थी। नियार्कस ने लिखा है कि भारतीय श्वेत रंग के जूते पहनते हैं, जो कि अति सुन्दर होते हैं। इनकी एड़ियाँ कुछ ऊँची बनाई जाती हैं। हाथी दाँत के काम में भारतीय बहुत पहले से ही कुशल थे। प्राचीन भारत में लिखने के लिए सूती कपड़े के खण्ड, संस्कृत में 'पट' का भी काफी इस्तेमाल हुआ है।    फादर एंथोनी मोंसेरात 1580 ई. के लगभग मुगल दरबार में आया था। वह एक जेशुइट साधु था, जिसे गोआ के पुर्तगाली  अधिकारियों द्वारा मुगल दरबार में भेजा गया था। फादर एंथोनी मोंसेरात को खासतौर पर मुगल बादशाह अकबर निमंत्रण पर भेजा गया था। मोंसेरात और उसके सहयोगी एकावीना, इन दोनों का अकबर ने भारी स्वागत किया था। अकबर ने अपने दूसरे पुत्र मुराद को पुर्तगाली भाशा सीखने के लिए साधु मोंसेरात के सुपुर्द कर दिया था।    मोंसेरात कई वर्ष अकबर के दरबार में रहा, और उसने लैटिन भाषा में जेशूइट मिशन का पूरा वृत्तान्त लिखा, यह विवरण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, और अकबर के राज्यकाल के बारे में एक समसामयिक स्रोत ग्रन्थ है। मोंसेरात ने अकबर की शक्ल-सूरत, पोशाक, धार्मिक मान्यताओं, शहजादों व शहजादियों की शिक्षा आदि के बारे में विस्तार से लिखा है। वह अकबर के साथ काबुल अभियान पर भी गया था। उसने मुगलकालीन शासन व्यवस्था, डाक वाहकों, जल घड़ी तथा नवरोज के उत्सव को भी उल्लिखित किया है। रॉल्फ फ्रिंच एक अंग्रेज व्यापारी था, जो 1588 ई. में भारत आया था। यह पहला अंग्रेज व्यक्ति था, जिसने भारत की यात्रा की थी। उसने उत्तरी भारत, बंगाल, बर्मा (वर्तमान म्यांमार), मलक्का और श्रीलंका की भी यात्रा की थी। वह अपनी यात्रा समाप्त करके 1599 ई. में सकुशल इंग्लैण्ड वापस लौट गया। उसने अपनी यात्रा का जो विवरण तैयार किया, वह काफी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। रॉल्फ फ्रिंच के इन्हीं यात्रा विवरणों के आधार पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में अपने व्यापार की योजना बनाई थी। रॉल्फ फ्रिंच ने भारतीयों तथा उनके रीति-रिवाजों के बारे में विस्तार से लिखा है।  उसने आगरा एवं फतेहपुर सीकरी को लंदन से भी बड़ा बताया। रॉल्फ फ्रिंच ने बाल विवाह तथा सती प्रथा का उल्लेख किया है। हॉकिंस, हेक्टर नामक जहाज पर सवार होकर पूर्व की ओर ईस्ट इण्डिया कम्पनी की तीसरी यात्रा का संचालक था। बादशाह जहाँगीर के नाम इंग्लैण्ड के राजा जेम्स प्रथम का पत्र लेकर वह 1608 ई. में भारत के सूरत में पहुँचा। हॉकिन्स स्थल मार्ग से मुगल दरबार में गया और जहाँगीर से भेंट की। वह मुगल दरबार में 1613 ई. तक रहा। जहाँगीर उससे अक्सर मिला करता था और उसने हॉकिन्स को 400 सवारों का मनसबदार बना दिया था। हॉकिन्स को जहाँगीर ने खान की उपाधि देकर सम्मानित किया था। बादशाह के कहने से हॉकिंस ने एक आरमेनियाई ईसाई लड़की से विवाह कर लिया। अंग्रेजों को कुछ व्यापार सम्बन्धी सुविधाएँ देने के लिए बादशाह को अंग्रेजों के अनुकूल बना लिया। पुर्तगालियों के विरोध के कारण हॉकिन्स की योजनाओं पर अमल नहीं हो सका।  हॉकिन्स 1613 ई. में मुगल दरबार से चला गया और वापस इंग्लैण्ड पहुँच गया। उसने भारत की यात्रा का वर्णन अपनी पुस्तक में लिखा है। उसने बादशाह की सम्पत्ति तथा उसके दरबारी कानूनों का उल्लेख किया है। विलियम फिंच 1608 ई. में भारत आया था। वह ईस्ट इण्डिया कम्पनी का एक प्रमुख व्यापारी था। विलियम फिच, विलियम हॉकिंस के साथ वेक्टर नामक जहाज पर सवार होकर सूरत पहुँचा।  उसने लार्ज जनरल नामक एक प्रमुख ग्रन्थ भी लिखा था। फिंच ने बुलन्द दरवाजे को सारी दुनिया में सबसे ऊँचा तथा भव्य माना था। वह अकेला ऐसा यात्री था, जिसने अनारकली की दंत कथा का उल्लेख किया है। विलियम फिंच ने बुरहानपुर को एक बहुत बड़ा और समृद्ध नगर कहा था। फ्रांसिस्को पेलसार्ट को एक डच गुमाश्ता (दलाल, प्रतिनिधि) के रूप में जाना जाता है। वह बादशह जहाँगीर के शासनकाल में आगरा आया था। फ्रांसिस्को पेलसार्ट ने भारत में मसुलीपट्टम से प्रवेश किया था। उसके अनुसार बशाना में अत्यधिक मात्रा में नील उत्पादित किया जाता था, जिसका इस वस्तु पर एकाधिकार था। वह आगरा को प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ बताता है। पियेत्रा देला वाले एक इतालवी यात्री था। यह 1622 ई. में सूरत पहुँचा। उसने गुजरात के उच्च वर्ग के मर्दाना तथा जनाना पहनावे का विस्तार से उल्लेख किया है। साथ ही तत्कालीन भारत के समाज की धार्मिक मान्यताओं, अंधविश्वासों, रीति-रिवाजों आदि का भी उल्लेख किया है। पियेत्रा देला वाले के अनुसार, नागौर में ब्रह्माजी का प्रसिद्ध मंदिर था, जिसमें संगमरमर की अनेक मूर्तियाँ थीं। एडवर्ड टैरी थॉमस रो का पादरी था। उसने मांडू में सम्राट जहाँगीर से भेंट की थी। उसके कथन के अनुसार, जहाँगीर दो विपरीत गुणों के मिश्रण वाला व्यक्ति था।


 


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