मानव शरीर मे रोगोत्पत्ति और निवारण

मानव शरीर मे रोगों का जंम दोषों की विकृति से होता है। अर्थात कफ, वायु और पित्त। यह तीन शारीरिक दोष हैं। और रज और तम दो मानस दोष है। शारीरिाक दोषों मे वायु की प्रधानता और मानसिक दोष मे रज की प्रधानता होती है। जैसे वायु के बिना कफ और पित्त पंगु होते हैं। वैसे ही रज के बिना तम कुछ नही कर सकता है। अर्थात शरीर मे रोगांे के जंम का कारण कफ, पित्त और वायु होते हैं। और रज और तम मानसिक रोगों के कारण होते हैं। मन में रहने वाला सत गुण विकार नही पैदा करता है। इसलिये सत गुण विकार नही माना जाता है। जैसे कफ दोष शरीर मे प्रमेह और  मधुमेह पैदा करता है। जिसका मुख्य कारण दही और कफ बनाने वाले अन्य पदार्थों का अधिक सेवन होता है। उसी तरह बुद्धि, मन और स्मरणशक्ति कि विकार स्वरूप उन्माद आगन्तुक और निज दो कारणों से होता हैं उपरोक्त कारणो से उत्पन्न 5 प्रकार का होता है।
 शरीर को स्वस्थ या अस्वस्थ रखने मे मन का पूरा हाथ होता है। अतः मन के सक्रिय होने से मन सक्रिय होता है। शरीर स्वस्थ और निरोग रहे इसके लिये मन का निर्विकार सन्तुलित और उच्च बल वाला होना चाहिये इसके लिये मन पर विवेक का नियंत्रण होना जरूरी  है। वर्तमान के स्थूल कार्यो का संचालन मन करता है। और मन के साथ बुद्धि, चित्त व अहंकार भी रहते हैं। इन्हंे अन्तःकरण चतुष्टय भी कहते हैं। मन पर अन्तःकरण का पूरा नियंत्रण रहता है। इन चारों कारणों के कार्य जिस वृत्ति के कारण होते हैं। वही अन्र्तमन या अन्तःकरण है। अन्र्तमन के चारों अंग सात्विक, राजसिक तामसिक तीनों गुणों से मिल जुले रूप को धारण करते है। इन तीनों गुणों का वर्णन निम्न प्रकार है 
सत्व गुण
 यह निर्मल, आनन्द, ज्ञानमय प्रकाशमय सरल सत्यरूप आरोग्यकर स्वस्थचित्त वाला होता है। यह शान्त, शुभत्व सद्गतियुक्त होता है। उत्थान करने वाला तथा उध्र्वगति प्रदान करता है। शरीर मे सुख व ज्ञानकारक होता है।
रजोगुण
 यह आसक्ति, राग, तृष्णा, लोभ कार्यो में प्रवृत्त अशान्ति, लालसा, सांसारिक कार्यों मे लिप्त रहता है। धन, वैभव व एश्वर्य को भोगने वाला होता है। शरीर और मन को दुनियादारी मे उलझाये रहता है। यह अशान्ति, आसक्ति, अतृप्ति व शरीर मे दुःख का कारक होता है।
तमोगुण
 यह द्वेष, क्रोध, ईष्र्या, अज्ञान, क्रूरता, आलस्य मूढताय अत्याचार, झगड़ा, बैर भाव हिंसा, प्रतिशोध और जघन्य वृत्ति शरीर मे देने वाला होता है। अधेगामी होने से यह पतन को ले जाता है। अति निद्रा व तामसिक प्रवृत्ति को बढाता है। जीवन मे अज्ञान, मूढता अंधकार का कारक होता है।
  इन उपरोक्त सत, रज, तम तीनों गुणों के प्रभाव मन, बुद्धि, अहंकार चित्त पर रहते है। इन गुणों का प्रभाव जितनी मात्रा मे और तेजी से शरीर मे पड़ता है। वैसे की स्थिति अन्र्तमन की होती है। जैसे ही स्थिति अन्र्तमन की होगी वैसे ही हामरी मानसिकता की होगी हमारी मनोवृत्ति वैसे ही आचार विचार, खान पान, रहन सहन आहार विहार हमारे शरीर का होगा वैसा ही हामरा स्वास्थ होगा परिणाम यह है कि अन्र्तमान पूरे प्रकरण का मुख्य कारण है अन्र्तमन पर जिस गुण का प्रभाव होगा वैसा ही हमारा जीवन होगा यह प्रभाव हमारे पूर्व कर्मों के संस्कार से पैदा होता है उसके प्रभाव से प्रभावित होने पर हमारा मन  इसके विपरीत आचरण नही कर पाता है। स्पष्ठ है कि अन्र्तमन मन से अधिक सक्रिय प्रभावशाली होता हैं अन्र्तमन हमारे मन और विचारो को प्रभावित और दिशा निर्देशित करता है। वैसे ही कर्म करने के लिये हम अपनी आदत से मजबूर हो जाते है। इन आदतों का ही दूसरा नाम शूक्ष्म रूप से अन्र्तमन है। अर्थात हमारे स्वस्थ और निरोग बने रहने मे मन से भी अधिक अन्र्तमन कारण होता है मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार अन्तःकरण के चार अंग हैं। 
मन- मनन करना, विचार करना मन का कार्य है।
बुद्धि-अच्छे बुरे का विचार करना करना चाहये या नही  यह बुद्धि का कार्य है।
अहंकार-मै ऐसा हूँ, आत्मसम्मान होना, ममत्व व अपने अस्तित्व का अनुभव करना अहंकार है।
चित्त-मन, बुद्धि, अहंकार से प्राप्त ज्ञान को धारण करने का साधन चित्त है। जिस पर सब संस्कार अंकित होते रहते हैं इसका संबध मुख्य रूप से आत्मा से और गौण रूप से मन, बुद्धि, अहंकार सब इन्द्रियों के साथ रहता है। अन्र्तमन के चारों अंग सत, रज, तम गुणोें के मिले जुले रूप को धारण करने वाले होते है। प्रकृति यत, रज, तम इन तीनों गुणों से युत होती है।  आज का विचार और कर्म कल भूतकाल बन जाता है।जो अन्र्तमन मे इकठ्ठा होता रहता है। संस्कार बन जाता है जिसे हम आदत कहते हैं। आदत अच्छी या बुरी है। वह हमारे ही अभ्यास का परिणाम होता है फलस्वरूप हम आदतों से ही मजबूर होकर हम अपने  अन्र्तमन के गुलाम हो जाते हैं। अन्र्तमन मे जैसे विचार कृत्य कर्मो के प्रभाव शूक्ष्म संस्कार बन कर इकठ्ठे हो जाते है। वे तब तक हमारे आचार विचार को प्रभावित करते रहते हैं। जब तक सुदृढ संकल्पशक्ति और मनोबल के साथ कठोर और अनवरत प्रयत्न करके उन संस्कारों मिटर ना दिया जाय और उनके बदले अच्छे संस्कार स्थापित कर दिये जाय पुरानी आदत को मिटाकर नई आदत डाली जाय यह अत्यन्त आवश्यक है ताकि अन्र्तमन मे ऐसे संस्कार ही ना रहें जो हमारे आचार विचार व आहार विहार को बिगाड़ कर हमारे शरीर और स्वास्थ को नष्ट कर दें साथ ही ऐसे संस्कार स्थापित हों जो हमे हितकारी और उचित विचार और कार्य करने की प्रेरणा दे हमारे अन्र्तमन मे हमे उन्नतिकारक प्रेरणा  मिल सके और हमारी मनोवृित्त उवित आवार विचार और आहार विहार करने हो सके जिससे हम सभी स्वस्थ और निरोगी जीवन जी सकें।
प्रथम उपाय- अपने अन्र्तमन को बाहरी माध्यम से अच्छे विचार आदेश और निर्देंश देकर उसमे परिवर्तन करना जैसे मनोचिकित्सक करता है। साथ ही मन को नियंत्रण मे रख कर स्वविवेक से ऐसे ही विचार और कार्य के लिये कटिबद्ध हो जो हमारे जिये श्रेष्ठ और हितकारी होें।
द्वितीय उपाय- जो लोग बुरे असत्य, हानिकारक आचार विचार व आहार विहार करते हैं। उनके भुगतने वाले परिणामों को को देख समझ कर विचार करें कि हमे भी ऐसे परिणाम भुगतने पड़ सकते है।
तीसरा उपाय- सबसे अच्छा उपाय है कि स्वयं अपनी सात्विक बुद्धि और विवेक कर अपने आपको अच्छे सुझाव देना व सुदृढ संकल्पशक्ति के साथ पालन करना इसे आत्मसम्मोहन कहते हैं इसके द्वारा हम अपने रक्षक या भक्षक जो चाहें बन सकते हैं। विवेक और सात्विक बुद्धि का उपयोग करके मन का वश मे करके लगातार आचरण करते रहें। तो हमारे बुरे संस्कार मिट जायेंगे और अच्छे संस्कार बन जायेंगें। आत्मसम्मोहन के अभ्यास से  अच्छे विचार व आचरण सहायक सिद्ध होते हैं। इनको अच्छा साहित्य, अच्छी संगति और ईश्वर की सर्वव्यापकता का बोध होता है। लो हर पल इ्र्रष्वर को याद करते है वे बुरे कार्य करना तो दूर बुरा विचार करना भी पसप्द नही करते हैं। सत्संग से हितकारी और उन्नतिकारक ज्ञान प्राप्त कर अपने संस्कार को सुधार व अन्र्तमन को बुरे विचार  और संस्कार दूर करने के लिये प्रयत्न करें तो हम स्वयं ही मानसिक विकार एवं मनःकायिक रोगों से अपना बचाव कर सकते हैं। और अपने शरीर को निरोग रख सकते हैं इस प्रकार अन्र्तमन को बीमारी और विकार से मुक्त करके सतोगुणी बना कर शारीरिक व मानसिक रोगियांे को स्वस्थ एवं निरोग रखा जा सकता है।                                                                                 


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