निष्काम कर्म को ही सेवा कहेंगे

सेवा और भक्ति वस्तुतः दो वस्तुयें नहीं हैं, वे एक-दूसरे के पूरक हैं, एक-दूसरे पर आश्रित हैं। प्रेम जब मन और वाणी से उतर कर आता है, तो उसे सेवा रूप में देखा जाता है। सच्चा प्रेम वह है, जो केवल शब्दों से ही मधुरता न टपकाता रहे, वरन् अपने प्रेमी के दुःख-दर्द में कुछ हाथ भी बटाये। कर्त्तव्य पालन में कष्ट स्वाभाविक है। कष्ट को अपेक्षित करके भी जो कर्त्तव्य पालन कर सकता हो, सच्ची सेवा का पुण्य फल उसे ही प्राप्त होता है। माता अपने बेटे के लिए कितना कष्ट सहती है, पर बदले में कभी कुछ नहीं चाहतीय यही सेवा का सच्चा स्वरूप है। इसमें देना ही देना है, पाना कुछ नहीं है। जो अपना सब कुछ न्यौछावर कर सकते हों, उन्हीं को तो परमात्मा का सान्निध्य सुख प्राप्त करने का सौभाग्य मिलता है। परिवार की देखभाल, स्वजनों के पालन-पोषण की व्यवस्था, बालकों को शिक्षित एवं विकसित बनाना यह सब सेवा कार्य ही हैं। किन्तु यह कार्य करते हुए अहं-भावना नहीं आनी चाहिए। निष्काम कर्म को ही सेवा कहेंगे। जिससे अपना स्वार्थ सधता हो, वह कभी सेवा नहीं हो सकती। व्यक्तिगत और पारिवारिक क्षेत्र से ही मनुष्य आगे की उत्कृष्ट सेवा का आधार बनाता है। यह क्षेत्र आगे बढ़कर प्राणि मात्र के हित और त्याग भावना के रूप में फैल जाता है। प्रारम्भ काल में जो अहंकार शेष रह गया था, विश्व-सेवा भावना से वह सभी धुल जाता है और मनुष्य प्रेम की पूर्णता का रसास्वादन करने लगता है। पारमार्थिक सेवा का स्वरूप काम-भाव तथा अहंकार के विग्रह से मुक्त होना है। वहाँ केवल अपनी योग्यता का लाभ दूसरों को देना रह जाता है। मैं कुछ नहीं हूँ, जो कुछ है वह है। मैं कुछ नहीं करता, यह सब परमात्मा ही करता है। “मैं” तो एक यंत्र मात्र हूँ, जो उसके इशारे मात्र से काम करता रहता हूँ। मैं व्यक्ति या समाज पर कोई उपकार नहीं करता हूँ, इससे मुझे आन्तरिक आनन्द की प्राप्ति होती है। यही मेरी सेवा का मूल्य है, जो परमात्मा मुझे निरन्तर देता रहता है। धर्म का यही रूप सही है। इस पूर्णता को प्राप्त करने के लिए शेष कर्मकाण्ड अभ्यास मात्र हैं। हमें धर्म को कर्मकाण्डों तक ही बाँधकर नहीं रखना चाहिए। इसलिए हमारे हृदय में प्रेम और सेवा-भावना का उदय हो तो समझना चाहिए कि हमने धर्म के प्राण को समझ लिया है और तभी सच्चे अर्थों में हम धर्म-निष्ठ कहलाने का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं 


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