सदगुरू के समान कोई अपना सगा नही है

सतगुरू सवाँ न को सगा, सोधी सई न दाति।
हरि जी सवाँ न को हितु, हरिजन सन न जाति।।
कबीरदासजी इस साखी में कहते है, ‘‘ सदगुरू के समान कोई अपना सगा नही है। विद्वान के समान कोई देने वाला नही है, भगवान के समान कोई हितैषि नही है और भक्त के समान कोई जाति नही है।
ग्रीस के दार्शनिक प्लेटो से दूर-दूर के लोग कुछ सीखने आते थे, पर वे बताने के साथ-साथ वह बात उनसे भी पूछते थे जो उन्हे नही आती थी। लोगो ने कहा- ‘‘ जो आपसे पूछने आते है, आप उनसे भी जानने का प्रयत्न करते है। इसमें आपकी इज्जत घटती है। प्लेटो ने कहा- मैं जीवन भर विद्यार्थी बने रहना चाहता हूँ। यह पदवी मुझे सबसे अच्छी लगती है।
जब प्लेटो जैसे दार्शनिक जीवन भर विद्यार्थी बने रहने की इच्छा रखते है और उन्हंे यह पदवी सबसे अच्छी लगती है। तो वास्तव में विद्यार्थी को कभी अपनी इच्छा, कुछ जानने की, कुछ सीखने की, पढ़ने की, ज्ञान अर्पन करने की कमजोर नही पड़ने देना चाहिए।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि लोटे की चमक को बनाये रखने के लिए उसे बार बार माँजना पड़ता है, नित्य प्रति उसकी रगड़ाई करनी पड़ती है। जिसके कारण चमक बनी रहती है। समय का सही उपयोग और निरन्तर अभ्यास ही हमें सफलता की ओर ले जाती है। हर इंसान में अपार क्षमता और प्रतिभा होती है। लेकिन वह उसके भीतर ही दबी पड़ी रहती है जैसे कि उसे इस बात की भनक ही नही है। वह सब कुछ पाने और करने में सक्षम है। आदमी के लिए असम्भव कुछ भी नही है जिस पल वह ठान ले सफलता वही से निश्चित हो जाती है।
लक्ष्य - लक्ष्य जीवन की दशा और दिशा दोनो निर्धारित करता है। लक्ष्य को पहचान कर गुरू के सानिध्य में वह कार्य किया जाय तों वह शत प्रतिशत सफल होता है। यदि एक कुशल मार्गदर्शक मिल जाये तो लक्ष्य प्राप्ति बहुत आसान हो जाती है परिश्रम तो सभी करते है लेकिन सही दिशा में किया गया श्रम अवश्य परिणाम तक पहुचता है। शिक्षण प्रणाली पूरी तरह बदल चुकी है पहले के समय में शिष्य पूरी तरह से गुरू के सानिध्य रहकर उनके साथ पूरी निष्ठा लगन और कठोर परिश्रम से ज्ञान प्राप्त करते थे। 
 आदर्श शिक्षक मात्र अध्यापन नही कराते छात्र को उस विद्या में  ऐसा पारंगत कर देते है कि वह स्वर्ण के समान बनकर निखर उठता है। पाण्डवों और कौरवों के गुरू एक ही थे गुरू द्रोणाचार्य लेकिन भविष्य में कोई दूसरा अर्जुन नही हुआ।
 गीता में कहा गया है “नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।“ अर्थात इस संसार में ज्ञान से बढ़कर कोई श्रेष्ठ पदार्थ नही है। आत्मनिर्माण की, चरित्रगठन की, सुंदर संस्कार की, सत्प्रवृतियों की भावनाएँ जागृत करने वाले सदविचारों को सच्चा ज्ञान कहा जा सकता है। यही जीवन को सफल बनाने वाला सवश्रेष्ठ पदार्थ है। 
 “ ज्ञान लाभ का उद्देश्य पूर्ण करने वाला सर्व सुलभ साधन है।“ 
गुरू हमें सिखातें हैं कि विभिन्न शास्त्रों के ज्ञान के लिए हमें किस प्रकार व्याकुल रहना चाहियें, किस प्रकार पागल जैसा बनना चाहियें। शिष्य को यह प्रतीत होता हैं कि गुरू मानों अनन्त ज्ञान की मूर्ति है, गुरू मानों एक प्रतीक होते है, गुरू मानों एक ज्ञान पिपासा है, गुरू मानों अनन्त ज्ञान की विकलता है, गुरू मानों सत्य के ज्ञान की उत्कंटता है। हमारे गुरू का न आदि है न अन्त हमारा गुरू परिपूर्णतः है।
सद्गुरू विरलो को सौभाग्य से मिलते है पूर्वजन्म के संचित संस्कार एवं ईश्वर-इच्छा ही ऐसा सौभाग्य जुटाती है हमारा सारा योगक्षेम वहन करने हेतु हमें अपने जीवन में गुरू से साक्षात्कार हो पाता है। जिस सीमा तक शिष्य का समर्पण होता है, उतना ही गुरू आगे बढ़कर शिष्य पर आने वाली आपत्तियों की, संकटो की परिस्थितियों से जूझने का ज्ञान देता है।
सद्गुरू भगवान के समान है हमारे मन अंतःकरण के स्वामी है तथा हमारी आध्यात्मिक प्रगति ही उनका लक्ष्य है।
 समय बदलने के साथ युग बदलने के साथ शिक्षण पद्धति भी बदल गयी है गुरू शिष्य परंपरा बदल गयी है।आज कम्यूटर का युग है बड़ी- बड़ी टेक्नोलाॅजी हर रोज विकसित हो रही हैं लेकिन गुरू के महत्व पे इन सब का कोई प्रभाव नही है। गुरू ही हमें भगवान से मिलाने का, ज्ञान प्राप्त कराने का सद्बुद्धि देने का एकमात्र माध्यम  है। गुरू की महिमा का बखान करते करते कलम थक जायेगी कागज कम पड़ जायेगें लेकिन उनकी महिमा का अन्त नही होगा। तभी तो कहा गया है-
सब धरती कागद करू लेखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करू गुरू गुन लिखौ न जाय।।


      
 


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