स्वतंत्रता दिवस आप सबको मुबारक

लीजिए, एक और स्वतंत्रता दिवस आ गया। ये वाला 72 वर्ष है। वैसे आजादी के 71 साल हो गये। अगर देशों की उम्र के हिसाब से बात करें तो देश युवा से गया है, परिपक्व, मजबूत, आत्मविश्वास से भरपूर। और हो भीं क्यूं ना, आखिरकार देश की प्रधान जनसंख्या युवाओं की ही तो है, नयी सोच, जोश और उत्साह से भरी हुई, भविष्य को एक नया नजरिये और विश्वास से बोलती हुई, सपनों और हकीकत से फासला कम करती, इस देश की नई पीढी।
 वैसे देखें तो इन 71 सालों में हमनें बहुत कुछ पाया। विज्ञान, तकनीक, समाज, अर्थव्यवस्था, हर क्षेत्र में हमने अभूतपूर्व और अकल्पनीय तरक्की के बारे में बात करने लगे, तो शायद इस पत्रिका के पन्ने कम पड़ जायेंगे।
 71 सालों में हमने बहुत कुछ पाया। लेकिन इस 72वें स्वतंत्रता दिवस के पड़ाव पर कुछ सवाल है जो आज भी हमारे सामने मुंह बाये खड़े खासकर कि पिछले कुछ सालों में जबकि अतिवादिता ने अचानक ही अपने पंख, या यों कहें अपने नुकीले र्डेने हमारे समाज में भेद दिये हैं।
 आसान होगा अगर हम इस लेख को सांम्रदायिकता, जाति भेद, लिंगभेद, रंगभेद या फिर राष्ट्रवाद के विवाद का अखाड़ा बता दें। पर उसके लिए तो आप को शाम को टीवी देख ही सकते हैं जहाँ टी.आर.पी. ;ज्त्च्द्ध की खातिर तथाकथित पत्रकार पत्रकारिता के मूल्यों का नित्य ही मजाक बनाते हैं।
 सवाल यह नहीं की कौन गलत, कौन सही। सवाल यह भी नहीं कि किसकी राष्ट्रवादिता किससे बढ़ी। और यह भी नहीं कि कौन सा धर्म बड़ा और कौन सा छोटा।
 सवाल छोटा है, मगर महत्वपूर्ण है। सवाल है आजादी का। सवाल है, इस देश में आजादी के मायने, उन मूल्यों का जो हमारे संविधान की नींव और जिनका मूल ध्येय इस देश की  एकता और सहिष्णुता बनाये रखना।
 आजादी कोई पेचीदी चिड़िया नहीं जिसे समझने के लिए ग्रंथों का अध्ययन करना पड़े। आजादी तो हमारे मूल अधिकार है, न केवल इस देश, इस आजाद देश के नागरिक होने के नाते, बल्कि एक इंसान होने के नातें आजादी अपने भगवान को पूजनें, चाहे वो जिस भी नाम से जाना जाता हो या न पूजने को, अगर वैसी इच्छा है आजादी सोच की, आजादी बोलने की, सुनने की, सांस लेने की। 
 क्यूं इतना मुश्किल हो गया हमारे लिए दूसरों को आजाद रहने देना। क्यूं चाहते है हम कि वो हमारी तरह सोचे, हमारी तरह जियें, और अगर नहीं तो वो तुरन्त ‘वो’ जाते है, वो जो हमसे अलग है और बस इसलिए हमें बांमपंथ या फिर अतिवादी नजरिए से कहें तो हमारे दुश्मन हैं।
 कोई भी धर्म, संप्रदाय, सोच, यहाँ तक कि समाज और सरकार पूरी तरह सही या गलत नहीं होते। हर सोच में विचारधारा से कोई न कोई खामी होती है। और कुछ अच्छाईयाँ होती है। अंग्रेजी में इसे ही ग्रे एरिया कहते है। समस्या यह है कि हम इस ग्रे एरिया को नहीं देखना चाहते हैं। हमारे लिए सबकुछ काला या सफेद मेरी सोच सफेद उसकी काली। मेरा धर्म सफेद उसका काला। और किसी न किसी स्वरूप में यह समस्या सबकी है, अब चाहे वो बहुमत में हो या अल्पसंख्यक। 
 हम यह मानना ही नहीं चाहते कि सबमें कमियाँ हो सकती है। उनमें भी ! हममें भी ! और सिर्फ इसलिए क्यूंकि हम उनसे सहमत नही या हमें वो समझ नहीं आते, इसका मतलब यह कि ‘वो’ हमेशा गतल है। या हमेशा हमारे दुश्मन अतिवादिता हर तरह से बुरी है। फिर चाहे वो  सेक्यूलर हो या सांप्रदायिक। क्योंकि अतिवादी सोच ग्रे एरिया नहीं मानती। वो सिर्फ दूसरे को गलत ठहराती है। नतीजा होता है असहिष्णुता, नकारात्मकता और हिंसा, अब वो चाहे प्रतीकात्मक ही क्यूं ना हो।
 असहिष्णुता का अंत और असहिष्णुता नहीं कर सकती और अतिवादिता का एकलौता जवाब इंसानियत है। क्यूं कि काले-सफेद की इस लड़ाई में हम भूल जाते है आखिरकर हर घर्म, हर सोच, हर विचारधारा के पीछे है तो इंसान ही। अगर हम खुद इंसान बन सके और दूसरों को इंसान रहने की आजादी दे सकें। उनकी गलतियों के साथ अपनी खुद की कमियों के साथ हम एक दूसरे को आजाद रहने दे सके तो शायद वो सबसे बड़ा स्वतंत्रता दिवस होगा, हमारे संविधान को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि।
 72वां स्वतंत्रता दिवस आप सबको मुबारक। उम्मीद करते है, इस वर्ष हम थोड़े और आजाद हों! 


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