सत्य का वास्तविक स्वरूप

सत्य का साक्षात्कार करते हुए हमें आंतरिक सत्संग करना है! सत्संग से अभिप्राय मन में लौटना है! अपने भीतर ईश्वर के रूप में स्थित सत्य को जानना है! ईश्वर के प्रकाश के निकट होना है, मन की चंचलता को रोक देना है तथा मन की मैल दूर करते हुए स्वयं के दर्शन करने हैं! यही सच्चे अर्थों में सत्संग है! यही सत्य का वास्तविक स्वरूप है। सत्संग से अभिप्राय सत्य का संग है या फिर ऐसे महापुरुषों का सान्निध्य है, जिनका जीवन आदर्श है। ऐसे महापुरुषों का प्रवचन जो भौतिक जीवन से मन को हटाकर भीतर आत्मिक प्रकाश की और जाने की प्रेरणा देते हैं, यही वास्तविक सत्संग कहलाता है। तथा, उनका संग करने से मानसिक तथा आध्यात्मिक बल प्राप्त होता है और आत्मविश्वास बढ़ता है। सत्संग आंतरिक दृढ़ता और आत्मविश्वास से जुड़ा हुआ भाव है। जब हम सत्संग में होते हैं तब हम चैतन्य होते हैं, हमारा विवेक और अंतःकरण के सभी द्वार खुलने लगते हैं और हम जीवन की भौतिक लालसाओं से सहज मुक्त होकर ईश्वरीय आलोक में निवास करते हैं। सत्संग हमें सत्य का साक्षात्कार करवाता है। सत्य वैसी ही सूक्ष्म भाव है, जैसा कि ईश्वर, ईश्वर का अनुभव आंतरिक प्रकाश में किया जा सकता है, वैसे ही सत्य का साक्षात्कार बाह्य से पूर्णतया कटकर, अपने भीतरी आलोक में लौटने पर ही संभव हो सकता है। इसलिए जो लोग आत्मदर्शन के लिए ध्यान की क्रियाओं का अभ्यास करते हैं, उनके लिए सत्संग एक महत्वपूर्ण सोपान है। सत्संग के समय मन निश्छल होता है तथा स्वयं को जानने का मार्ग सुगम हो जाता है। सत्संग ऐसे लोगों के साथ उठने-बैठने या उनकी कथा सुनने से है, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार किया है। जिन खोजा तिन पइयां, गहरे पानी पैठ। मैं बौरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ॥ अर्थात् असल वस्तु ब्रह्म दर्शन पाना है तो गहरी डुबकी तो लगानी ही होगी। गुरु ने आपको समुद्र के किनारे तो लाकर खड़ा कर दिया है, जो अनमोल मोतियों से भरा है। मात्र ऊपर-ऊपर ही तैरते रहने से मोती नहीं मिलेंगे, उसके लिए तो आपको गहरी डुबकी लगानी ही पड़ेगी। हां, यह बात अलग है कि कभी समुद्र की दया हो जाए और मोती किनारे पर आ जाएय अर्थात्, सद्गुरु की अहैतुकी कृपा हो जाए तो मोती आपके हाथ में आ जाये।
 
 


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