मजदूरों की दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है

राज्यों से पलायन कर रहे मजदूर अपने सर कंधों पर अपने कर्म, अपने धर्म,अपने फर्ज, साथ ही अपने दुःख तकलीफों का बोझ लादे सैंकड़ों मील का सफर अपने छालों से भरें नंगे पैरों से आँखों में आँसू, पसीने से लथपथ सड़कों को बिना थके, बिना रुके अपने हौंसलों से नाप रहे हैं। अगर इतना सब हो रहा है तो पलायन शब्द कंहा से आया, मजदूर भूखे रहा, स्थानिकों की गाली-मार खाई, अपमान सहे, सड़कों-फुटपाथ पर अपना रैन बसेरा किया, लेकिन कभी भागा नही क्योंकि उसे अपने बूढ़े माता-पिता, छोटे-छोटे मासूम बच्चों का पेट भी पालना था, और वो सुविधा-असुविधा से अनजान बस अपने कर्म को अंजाम देता रहा और अपने परिवार का भरण-पोषण करता रहा. .परंतु आज अचानक ऐसा क्या हो गया कि उसी मजदूर को अपनी कर्मभूमि छोड़कर पलायन करना पड़ रहा है, चिंतन का विषय है,,और सभी राज्य सरकारें चिंतन करें।
सड़कों पर पैदल चल रहे मजदूरों के साथ उनकी पत्नी, उनके छोटे छोटे बच्चोँ की भूख, उनके आँसू, उनके पैरों के छालों पर राजनीति करने के बजाय ऐसा कुछ क्यों नही हो रहा कि मजदूर भागे ही नहीं,, और क्यों भाग रहे हैं ये मजदूर, क्यों तपती धूप, भूख प्यास, छालों की परवाह किये बिना सैंकड़ों मील का सफर तय करने पर मजबूर इन मजदूरों और उनके परिवार की इस दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है, ये हमे सोचना होगा, और सिर्फ सोचना ही नही समझना भी होगा कि इन मजदूरों के पलायन की जिम्मेदारी पूरी की पूरी उसी राज्य सरकार की है जिस राज्य से मजदूर खुद को असहाय, असुरक्षित, उपेक्षित समझकर भाग रहे हैं।


मजदूरों का पलायन राज्य सरकार की नाकामी भर है बस, सड़कों पर पैदल चल रहे मजदूरों से जब मीडिया कर्मी बात करते हैं तो लगभग सभी का यही कहना होता है कि उनके पास आज की स्थिति में रोजगार नही है, पैसा नही है, और जब तक लॉकडाउन रहेगा यही परिस्थिति होगी, देने के लिए रूम का किराया नही है, खाने को अन्न का एक दाना भी नही बचा, घर मालिक किराया ना देने पर उन्हें घर से निकाल रहे हैं, तो वो मजबूर हो गए हैं कि उन्हें सड़कों पर दम तोड़ना मंजूर है परंतु ऐसी सरकार की अनदेखी बर्दाश्त नही है।
सरकार दावा कर रही है कि तीन महीने का किराया कोई भी घर मालिक नही लेगा, परंतु ऐसा नही हो रहा है, मजदूरों को पर प्रांतीय होने के कारण सताया जा रहा है किराये आदि को लेकर। राशन किट बांटने की बाते हो रही है, विडियो, तस्वीरें वायरल हो रही है सोशल मिडिया पर,लेकिन ये किट किस गरीब के घर पहुँच ,और अगर पहुँचा तो ये कौन लोग हैं जो भूखे प्यासे सड़कों पर दिखाई दे रहे हैं, कम्युनिटी किचन शुरू है, परंतु हजारों लाखों लोग भूखे हैं, क्योंकि फूड पैकेट के लिए घंटो लाइन में खड़े रहना होता है, और प्रति व्यक्ति एक पैकेट,,तो घर के हर सदस्यों को बच्चे बुढों सभी को लाइन में खड़े रहना जरूरी है जो नही हो पाता इन्ही सारी तकलीफों को झेलते-झेलते थक हार कर मजदूर पलायन कर रहा है, क्या ये गंभीरता से सोचने का विषय नही है, क्यों आखिर, क्यों मजदूर भाग रहे हैं? सोचना तो दूर बल्कि हम खुशी खुशी उन्हें राज्य के बॉर्डर पार भिजवा रहे हैं कि चलो जान छूटी, भीड़ कम हो रही है, हमारे राज्य की बीमारी घटेगी, हमारी मेहनत कम होगी, कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि पर प्रांतियों की भीड़ (लाट) के चलते महामारी का प्रकोप बढ़ता जा रहा है, वो भाग रहे हैं तो भागने दो, उलटे हम ही उन्हें बॉर्डर पार करवा देते हैं, कुछ ऐसा करो कि वो भाग ही जाए और इसमें पर प्रांतियों के प्रतिनिधि के रूप में दल विशेष के छुटभैय्ये नेता भी बॉर्डर पार भिजवाने में जी जान से जुटे है, ये जानने की कोशिश तक नही कर रहे कि किस तकलीफ के चलते वो भाग रहे हैं, बल्कि उनके हिसाब से ये अच्छा ही हो रहा है कि उनके नाम का किट ,सुविधा भी अपने-अपने घर में भर लेंगे।
पूरे देश से पलायन कर रहे लगभग 80ःसे ज्यादा मजदूर उत्तर प्रदेश और बिहार के रहने वाले हैं, जरा ये भी सोचो ये 80 प्रतिशत मतलब लाखों करोड़ों लोग एक साथ किसी एक राज्य में सिर्फ अपनी जान बचाने, खुद को सुरक्षित रखने के लिए चले गए तो अचानक आयी इस भीड़ के चलते उस राज्य का क्या होगा, क्या वंहा बीमारी बढ़ेगी नही, वंहा की अर्थव्यवस्था बिगड़ेगी नही, अचानक आयी इस भीड़ को संभालने में सारी व्यवस्थाएं  गड़बड़ा रही हैं, बॉर्डर पर लाखों मजदूर अपने-अपने घर जाने को लेकर आस लगाए खड़े हैं, परंतु उस राज्य की मजबूरी तो समझो कि एक साथ उन्हें अपनी अपनी जगह सुरक्षित जांच के बाद पहुँचाना असंभव सा है,जबकि स्वयं महाराष्ट्र की आर्थिक राजधानी मुम्बई तक इन मजदूरों को संभाल नही पा रही, बावजूद उसके मजदूरों के गृहराज्य सरकार ने हार नही मानी है, प्रयास अनवरत जारी है लेकिन कुछ मीडिया, कुछ विपक्षी, कुछ झोलाछाप नेता राजनीति से बाज नही आ रहे हैं।
अगर हर राज्य ने अपनी-अपनी जिम्मेदारी पूरी लगन, पूरी ईमानदारी से निभाई होती तो मजदूरों की ये दुर्दशा नही होती। चुनाव के दौरान एक-एक व्यक्ति को खोज खोज कर उनके दारू-पानी का इंतजाम कर, जाली कागजात बनवाकर अपने वोट बैंक को बढ़ाते रहते हैं, उसी प्रकार इसी वोट बैंक को आज की स्थिति में सिर्फ दो वक्त की रोटी देकर, उनकी जायज आर्थिक अड़चनों को हल करके संभाल लेते तो क्या जाता, इतना भार नही पड़ता अकेले राज्य पर,परंतु आज हर राज्य,हर नेता, हर व्यक्ति खुद को बचाने में लगा है, देश की, दूसरे राज्य की या अपने पड़ोसी की चिंता किसी को नही है बल्कि यहंा भी राजनीति ही करेंगे कि अगर किसी को सुविधा मिली तो वो राज्य सरकार की सफलता है, किसी को नही मिली तो ये केंद्र सरकार की नाकामी है, ट्रेन नही चल रही तो केंद्र सरकार की गलती क्योंकि केंद्र के अधीन है रेलवे, लेकिन ट्रेन श्रमिकों को लेकर जाने लगी तो ये राज्य सरकार की सफलता है, सारा श्रेय राज्य सरकार को जाता है, ये फिजूल की राजनीति की बजाए सिर्फ और सिर्फ अपने अपने राज्य के लोगों का ध्यान रखते, उन्हें उचित सुविधाएं उपलब्ध करवाते, राजनीति की बजाए इंसानियत ही दिखा देते तो आज ये भयावह स्थिति नही होती।


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