आखिर हमें पुरूष दिवस मनाने की जरूरत ही क्या थी?

अनिल ‘अनाड़ी’, हास्य-व्यंग्य/ओज कवि/लेखक/विचारक

19 नवम्बर यानि अन्तर्राष्ट्रीय पुरूष दिवस

आजादी के बाद जहां ये कल्पना की जा रही थी कि हम आजाद देश के आजाद नागरिक होकर स्वतंत्र रूप से हर्षोल्लास के साथ एक आम आदमी की तरह जिन्दगी के लम्हों का क्षण-प्रतिक्षण आनन्द उठा पायेंगे लेकिन आनन्द उठाना तो दूर हम अपने सामाजिक सरोकारों, संस्कारों से बहुत दूर होते चले जा रहे हैं। आज आजाद होने के बाद हम महिला-पुरूष, बेटा-बेटी, माता-पिता आदि के रूप में अलग-अलग विभाजित होते जा रहे हैं, जिसका नतीजा आज हमें अन्तर्राष्ट्रीय पुरूष दिवस के रूप में देखने को मिल रहा है। आखिर हमें पुरूष दिवस मनाने की जरूरत ही क्या थी? इसी तरह महिला दिवस, बेटी दिवस, मातृ दिवस, पितृ दिवस आदि-आदि मनाने के लिए विवश होना पड़ रहा है। गोरे अंग्रेजों ने तो जाते-जाते सिर्फ देश के दो टुकड़े किये गये थे पर इनके वंशज आज समाज के एक-एक व्यक्ति को टुकडों में बाटकर ओछी राजनीति करने पर अमादा हैं। आखिर ये सब दिवस  मनाने को क्यों विवश हैं? पहले हमारे संयुक्त परिवार टूटे, बाद में परिवार टूटे अब तो परिवार क्या, एक-एक व्यक्ति टूटता जा रहा है। कुछ लोग कहते हैं कि हम परिवार चला रहे हैं तो अनाड़ी कहते हैं कि आप परिवार नहीं समझौता एक्सप्रेस चला रहे हैं, जिसमें न चाहने वाली जिम्मेदारियों को निभा रहे हैं, हा में हा मिला रहे हैं। एकआध अपवाद छोड़ दीजिए बाकी सबकी वही कहानी है। ये सब विघटन क्यों हुआ, कैसे हुआ इसको रोकने के लिए क्या उपाय हैं? पुरूष दिवस मनाने का सबसे बड़ा अहम् कारण पुरूषों के प्रति सरकारों, कानून व राजनीति का एकतरफा मनमाना रवैया है, जिसके चलते पुरूष की दशा एक निरीह प्राणी की तरह हो गयी है जो अपने ही परिवार में अपने ही लोगों में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। उसकी दशा जानवर से बदतर हो गयी है इसलिए महिला आयोग व जानवर आयोग आदि तो देश में उपलब्ध हैं परन्तु पुरूष आयोग नदारद है।

पुरूष प्रधानता को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करके भारतीय समाज में जो आग लगायी गयी है वह अब भयावह रूप ले चुकी है। काश! पुरूष प्रधानता को पानी पी-पीकर कोसने वाले शायद पुरूष प्रधानता का मतलब समझ पाते? पुरूष प्रधानता किसी व्यक्ति विशेष पर प्रभुत्व जमाकर रूतबा कायम करना नहीं बल्कि पुरूष प्रधानता का मतलब परिवार रूपी संस्था को एक माला में पिरोकर उसे सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी की भूमिका होती थी, जिसे पुरूष प्रधानता  का नाम देकर गला फाड़-फाड़कर चिल्ला, चिल्लाकर भारतीय परिवारों को तहस-नहस करने का कुचक्र रचा गया, जिसकी चपेट में सिर्फ पुरूष ही नहीं महिलाये भी आ रही है, जिसका परिणाम धीरे-धीरे जगजाहिर भी हो रहा है। पुरूष को हमेशा क्रूर का तमगा दिया गया जबकि क्रूरता महिला व पुरूष दोनों पक्षों में होती है। ये धारणा बदलनी होगी कि पुरूष है तो क्रूर ही होगा और महिला होगी तो बेचारी ही होगी। प्राचीनकाल के इतिहास को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करके आज इस बदले हुए परिवेश में जबकि महिलाओं को पचासों कानूनी हथियार प्राप्त हैं भी जब महिला पुरूष के कन्धे से कन्धा मिलाकर समान रूप से चल रही है फिर भी उसको नजरन्दाज कर एकपक्षीय रवैया लगातार अपनाया जा रहा है। पुरूष आयोग दुनिया के चन्द देशों द्वारा मनाया जाता है अब धीरे-धीरे इसका स्वरूप बढ़ता जा रहा है लोगों में जागरूकता बढ़ रही है कि हा पुरूषों के हक के लिए देश के तमाम पुरूष संगठनों द्वारा जमकर संघर्ष किया जा रहा है, जिससे कि देश में पुरूष आयोग भी बन सके। कम से कम पुरूष नामक असहाय प्राणी अपनी व्यथा कहीं सुना सके। हालाॅकि अन्तर्राष्ट्रीय पुरूष दिवस को उतने बड़े स्तर पर प्रचार-प्रसार नहीं मिल पाता क्योंकि जिस तरह से महिला दिवस, मातृ दिवस व बेटी दिवस को हमारी सरकारों द्वारा, मीडिया द्वारा बड़े जोर-शोर से तवज्जो दी जाती है परन्तु धीरे-धीरे पुरूष संगठनों द्वारा बिना किसी सहयोग से अन्तर्राष्ट्रीय पुरूष दिवस को अपने स्तर से बड़े जोर-शोर से मनाया जाता है। 

आजादी के बाद स्वतंत्रता स्वच्छन्दता में परिवर्तित होती जा रही है जिसके चलते ही परिवार रूपी संस्था को टुकड़ो-टुकड़ों में बिखरकर अलग-अलग दिवस मनाने को विवश होना पड़ रहा है। परिवार में राजनीति व कानून समावेश कर चुका है जिससे धीरे-धीरे रिश्ते-नाते सब टूटने को मजबूर हो रहे हैं क्योंकि रिश्ते राजनीति व कानून से नहीं, आपसी तालमेल व समझ से चलते हैं। इसीलिए ‘अनाड़ी’ कहते हैं कि -

रिश्ते में जबसे प्रवेश कर गयी, राजनीति व कानून।

रिश्तों के होने लगे, खून-खून पे खून।

जब पुरूष का कोई पुरसाहाल लेने वाला नहीं है तो तमाम पुरूष संगठनों द्वारा ही अपने स्तर से हर वर्ष ‘अन्तर्राष्ट्रीय पुरूष दिवस’ को धूमधाम से मनाया जाता है क्योंकि जब हक आसानी से न मिले तब उसके लिए लड़ना पड़ता है और आज ये लड़ाई पूरे देश में जोर-शोर से जारी है।

समस्त देशवासियों को ‘अन्तर्राष्ट्रीय पुरूष दिवस’ की अनाड़ी की तरफ से हार्दिक बधाईया। 

अन्तर्राष्ट्रीय पुरूष दिवस के अवसर पर मेरी एक छोटी-सी कविता ‘पुरूष का दर्द’ प्रस्तुत है:-

पुरूष का दर्द

कौन कहता है मर्द के सीने में,

दर्द नहीं होता।

जिसके सीने में दर्द होता,

वह मर्द नहीं होता।

माना नारी की ममता का,

कोई मोल नहीं होता।

क्या पुरूश का इस समाज में,

कोई रोल नहीं होता।

जब बच्चा दर्द से रोता है,

क्या कोई पुरूश चैन से सोता है।

जो अपने आसू को पी जाये,

क्या वह इंसान नहीं होता है।।

यदि सीने में होता दर्द नहीं,

तो मजनू कोड़े ना खाता।

मुमताज महल की याद में ‘अनाड़ी’

कोई ताजमहल न बन पाता।।

यदि यही परम्परा है समाज की,

तो इसको झुठलाना होगा।

क्रूरता के इस ठप्पे को,

मन-मस्तिष्क से हटाना होगा।।

अनिल ‘अनाड़ी’

हास्य-व्यंग्य/ओज कवि/लेखक/विचारक

मो.: 9889046238, 9415596471

 

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