जीवन में रूकना नहीं, जान बाकी है, अभी बहुत कुछ है...

एक मामूली आदमी नाटक का सार

- प्रमोद कुमार, विशेष संवाददाता

अनुकृति रंगमण्डल कानपुर द्वारा दर्पण लखनऊ के सहयोग से प्रस्तुत नाटक ‘एक मामूली आदमी’ का मंचन उ. प्र. नाटक अकादमी के परिसर में भव्यता, आकर्षक के साथ प्रस्तुत हुआ। दर्शकों के द्वारा तालियों की गड़गडाहट उत्साहवर्धन लगातार जारी रहा।

एक मामूली आदमी  नाटक के लेखक अशोक लाल व निर्देशक डा. आमेन्द्र कुमार बड़ी बारिकियों व सूझबूझ से आम आदमी की इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प को नाटक के माध्यम से बखूबी दिखया है। संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के विशेष सहयोग के माध्यम से नाटक में पहले शौचालय फिर देवालय, मन्दिर-मस्जिदों के बजाय आम जनता के चेहरे पर तुस्कराहट बिखेरने वाले लाभप्रद कार्यो पर जोर दिया गया तथा सबका विकास, सब का विश्वास, सब का साथ मूलमंत्र को लेकर चलना चाहिए। एक मामूली आदमी नाटक में मंच पर ईश्वर चन्द्र अवस्थी- महेन्द्र धुरिया, लक्ष्मी- संध्या, खरे- विजय भान सिंह, उमेश अवस्थी- दीपक राज राही, रमा अवस्थी- दीपिका सिंह, कमिश्नर- सुमित गुप्ता,  राधेलाल पंडित- अजीत सिंह, घनश्याम पंडित। चैकीदार- हर्षित शुक्ला, तिवारी- सम्राट यादव, दादा- कुशल गुप्ता, औरत पहला, दूसरी व तीसरी क्रमशः जौली घेष, कमला गौड़, जिज्ञासा शुक्ला ने बखूबी निभाया है।

इसी प्रकार चायवाला- अमित सोनकर, अजनवी- महेश जायसवाल व आदमी पहला व दूसरी क्रमशः यर्थाथ शर्मा, साहिल चक्र ने मंचन किया। एक मामूली आदमी नाटक में महापालिका दफ्तर में बड़े ईश्वर चन्द्र अवस्थी सीधे, ईमानदार व सिद्धान्तों व नियमों के अनुकूल चलने वाले व्यक्ति है। पत्नी के न रहने से अपनी अपने बेटे उमेश के जीवन को संवारने में सारी उम्र लगा दी। बेटा अपनी पत्नी व अपने बेटे के साथ अलग दुनिया में रम गया। रिटायरमेंट के करीब आते अवस्थी जी को अकेलेपन का अहसास होता है। दफ्तर के कुछ मस्तमौला कर्मी अकेलेपन को दूर करने के लिए खरे का साथ पाने की कोशिश पर उन्हें खुशी नहीं मिलती। खुशमिजाज लड़की लक्ष्मी दफ्तर में ही लिपिक है, वह आफिस के दमघोटू महौल से त्रस्त होकर नौकरी से रिजाइन कर रही है। उसके पास चाबी वाला बन्दर खिलौना जो चाबी से तबला बजाता है रूक-रूककर बजता है जिसे देखकर अवस्थी को प्रेरणा मिलती है कि रूकना नहीं अभी जान बाकी है। कुछ महिला-पुरूष उसके साथ होटल, रेस्टोरेंट में चाय-पानी आदि में मस्ती करवाते है, जो अवस्थी को रास नहीं आता है। मध्यम वर्गीय लोगों से आबाद जे.जे. कालोनी के पास स्थित महापालिका मैदान जिसे प्राइमरी स्कूल के लिए रिजर्व रखा गया है। एक विधायक व कुछ पण्डे-पुजारी ट्रस्ट के माध्यम से मंदिर बनाने का दबाव डालते है। कालोनी वाले गरीब आदमी मंदिर के पक्ष में न होकर पार्क व शौचालय के निर्माण सहमति की फाइल अवस्थी जी बाबू के पास होती है, जिस पर महापालिका के वरिष्ठ अधिकारी, विधायक व पण्डे-पुजारी अपने स्वार्थ के लिए मंदिर चाहते है। नैतिक-अनैतिक दबाव भी मंदिर के लिए होता है।

परन्तु अवस्थी जी नियम-कानून गरीबों  की भावना के लिए डटे रहते हैं। पार्क बनकर तैयार हो जाता है, एक रात इसी पार्क में एक बेंच पर रात की खामोशी के बीच ईश्वर चन्द्र अवस्थी का देह और आत्मा का रिश्ता टूट जाता है। चैकीदार द्वारा ज्ञात होता है कि अवस्थी जी को गैस्टिक कैंसर भी था।

नाटक का सार यह है कि व्यक्ति में प्रबल इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प रखे तो आम मामूली आदमी बहुत कुछ कर सकता है। सरकारी दफ्तरों के बाबू आमतौर पर अफसरों के यसमैन, पण्डे-पुजारियों के अंधभक्त होते हैं। मगर अवस्थी जी महापालिका मैदान में सिद्धांतों-नियमों को देखते हुये पार्क बनवाने में सफल हुए। ईश्वर चन्द्र अवस्थी बड़े बाबू ने महापालिका मैदान में पार्क बनवाकर आम जनता के चेहरे पर मुस्कराहट लाने में सफल रहे।



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