गीता मनुष्य को सुखी रहना सिखाती है

- डा. युवामित्र

जिस प्रकार कुरूक्षेत्र के रणक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण के मुख से निकली गीता ने अर्जुन को कर्तव्य-अकर्तव्य के भ्रमजाल से निकालकर एक नयी दृष्टि दी, उसी तरह पता नहीं, कितनी पीढ़ियों ने जीवन के अपने छोटे-बड़े संग्राम में, संशय के क्षणों में, चिन्ताओं के भंवर से निकलने में गीता-पाठ से हिम्मत से खड़े रहने की शक्ति प्राप्त की है। गीता मनुष्य को सुखी रहना सिखाती है। भगवान में विश्वास रखने वालों के लिए गीता माता के समान है जो निराशा के गर्त में डूबे लोगों को आशा की किरण दिखाती है। 

आइए जानते हैं जीवन-संग्राम में चिंताओं से हारे-थके मनुष्य को हिम्मत से खड़े रहने की शक्ति देने वाले गीता के कुछ अंशः- चिंता, शोक और उद्वेग से मुक्ति के लिए गीता के कुछ सिद्ध मंत्र, आज के युग की सबसे बड़ी बीमारी चिन्ता का समाधान बताते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:-

- जो हुआ वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है। 

- जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिन्ता न करो। वर्तमान में जियो। 

- यह संसार एक रंगमंच है। जहां सभी को खेलना (अपना कर्तव्य कर्म करना) है। खेल की चीजों को अपना मान लेने से ही अशांति आ जाती है। अपनापन छोड़ा और शांति मिली। (4।93) 

- तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया, जो नाश हो गया। न तुम कुछ लेकर आए, जो लिया यहीं (भगवान) से लिया, जो दिया यहीं पर दिया। खाली हाथ आए, खाली हाथ चले जाओगे।  फिर भी मनुष्य वस्तुओं और प्राणियों में ‘मैं’ और ‘मेरेपन’ का भाव रखता है। मनुष्य सभी को अपने मन-मुताबिक नहीं बना सकता, जितने दिन चाहें साथ में रह नहीं सकता, न किसी का स्वभाव बदल सकता है और न ही रंग-रूप । तब ये सब ‘मेरे’ और ‘मेरी चीजें’ कैसे उसकी हुईं?

- जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझकर प्रसन्न हो रहे हो । बस यही प्रसन्नता ही तुम्हारे दुःखों का कारण है। अतः मनुष्य को मानना चाहिए कि ये संसार, घर, धन, परिवार सब भगवान का है और हम भगवान का ही काम करते हैं। सब चीजें भगवान की मानने से वे प्रसाद-रूप हो जाएंगी। ऐसा भाव रहने से चिन्ता, भय आदि कुछ नहीं रहेगा। अपने आपको भगवान के अर्पित करो। यह सबसे उत्तम सहारा है। जो इस सहारे को जानता है, वह भय, चिन्ता और शोक से सदैव मुक्त है।

- तू सम्पूर्ण धर्मों के आश्रयों को छोड़कर केवल एक मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा, तू चिन्ता मत कर।

- भगवान की शरण में जाने का अर्थ! है-श्रद्धा-पूर्वक निष्कामभाव से भगवान की आज्ञा का पालन करना, उनके गुण व स्वरूप का चिन्तन करना एवं हमारे कर्मों के अनुसार जो सुख-दुःख आदि प्राप्त हों उनमें सम रहना।

- हर परिस्थिति में प्रसन्न, संतोषी और सहनशील बने रहना-संसार में सुख भी आता है और दुःख भी क्योंकि सुख-दुःख, अनुकूलता-प्रतिकूलता संसार का स्वरूप है। भगवान का कहना है कि सुख-दुःख तो आने-जाने वाले और अनित्य हैं। उनको तुम सहन करो। जिसका मन सम भाव में स्थित है, उन्होंने जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत लियाय क्योंकि समता आने से सब दोष चले जाते हैं।

- गीता कहती है कि ये दो तरह-तरह की परिस्थितियां आ रही हैं, उनके साथ मिलो मत, उनमें प्रसन्न-अप्रसन्न मत होओय वरन् उनका सदुपयोग करो। हमें मिलने वाली वस्तु, परिस्थिति आदि दूसरे व्यक्ति के अधीन नहीं है वरन् प्रारब्ध के अधीन है। प्रारब्ध के अनुसार जो वस्तु, परिस्थिति हमें मिलने वाली है, वह न चाहने पर भी मिलेगी। प्रतिकूल परिस्थिति भी अपने-आप आती है, उसी प्रकार अनुकूल परिस्थिति भी अपने-आप आएगी। इसलिए मनुष्य को केवल निष्कामभाव से अपना कर्तव्य करना चाहिए।

प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर।

तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्रीरघुबीर।।

- गीता में भगवान ने मनुष्य को चिंतामुक्त रहने के लिए कितना सारे आश्वासन दिये हैं:-

- तू मेरे परायण होकर संपूर्ण कर्मों को मेरे को अर्पण कर दे तो तू मेरी कृपा से संपूर्ण विघ्न-बाधाओं से तर जाएगा। 

- मेरे परायण हुए जो भक्त संपूर्ण कर्मों को मुझे अर्पण करके अनन्यभाव से मेरा भजन करते हैं, उनका मैं स्वयं संसार-सागर से उद्धार करने वाला बन जाता हूँ।

- मुझे भज कर लोग स्वर्ग तक की कामना करते हैं, मैं उन्हें देता हूँ। अर्थात् सब कुछ परमात्मा से सुलभ है।

- गीता चिन्ताग्रस्त मनुष्य को हर समय भगवान के भरोसे प्रसन्न रहने के लिए कहती है, तू केवल मेरी ही शरण में आ जा। मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा, तू शोक मत कर।

 

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